The economic crisis of slums increased due to lockdown

भारत के सख्त लॉकडाउन ने झुग्गी बस्तियों में आर्थिक संकट बढ़ा दिया है क्योंकि यहां के अधिकांश लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, जैसे दिहाड़ी मजदूर, फेरी वाले, घरेलू कामगार, ऑटोरिक्शा चालक आदि।

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भारत के सख्त लॉकडाउन ने झुग्गी बस्तियों में आर्थिक संकट बढ़ा दिया है क्योंकि यहां के अधिकांश लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, जैसे दिहाड़ी मजदूर, फेरी वाले, घरेलू कामगार, ऑटोरिक्शा चालक आदि। परिवार चलाने के लिए ये रोजमर्रा की कमाई पर निर्भर हैं। सुस्त आर्थिक गतिविधि ने इनमें से अनेक परिवारों को अनिश्चितता की स्थिति में धकेल दिया है। ये भीड़-भाड़ वाली, निम्न आय वाले लोगों की बस्तियां होती हैं, जिन्हें अक्सर अनियोजित तरीके से बसाया जाता है। संकीर्ण गली-मोहल्लों में झुग्गियों का फैलाव होता है। यहां के लोगों को अक्सर पानी और स्वच्छता की कमी से जूझना पड़ता है और असुरक्षित आवासीय स्थिति का सामना करना पड़ता है। कोरोना का असर गरीब और घनी आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में सबसे अधिक विनाशकारी होगा।

सवाल यह है कि भारत की झुग्गी बस्तियों के लोगों को उनकी सुरक्षा और भलाई की खातिर खतरों से निपटने के लिए कैसे संगठित किया जाता है? इन बस्तियों के नेता कौन हैं और वायरस के प्रसार को धीमा करने और रोकथाम के उपायों से जुड़ी आर्थिक कठिनाइयां कम करने के लिए सरकारी एजेंसियां और नागरिक समाज संगठन उनके साथ किस हद तक भागीदारी कर सकते हैं?

अधिकांश झुग्गी बस्तियों में कई-कई नेता होते हैं, जो झुग्गीवासियों को अपने खेमे में लाने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। ये झुग्गीवासियों के लिए कई तरह के काम करते हैं। इनमें सबसे आम है लोगों के लिए राशन कार्ड बनवाना और पक्की सड़कों, पानी के नलों, नालियों और स्ट्रीट लाइट्स जैसी सार्वजनिक सेवाओं के लिए अधिकारियों को आवेदन पत्र लिखना। वे झगड़े निपटाने और बेदखली के खिलाफ स्थानीय लोगों को संगठित करने के अलावा गरीबों को सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारी भी देते हैं। इसके अलावा वे सोशल डिस्टेंसिंग के महत्व के बारे में भी लोगों को बताते हैं।