ये भी है उत्तर-दक्षिण की बहस का दूसरा पक्ष, विधानसभा चुनावों के नतीजे से छिड़ी नयी बहस

Loading

एस. हनुमंत राव, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार 

विधानसभा चुनावों के नतीजे (Assembly Election Results 2023) आने के बाद ‘उत्तर भारत बनाम दक्षिण भारत’ की बहस छिड़ गई है. इस बहस में पड़ने से पहले हमें दक्षिण को समझना होगा. दक्षिण के पांच राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश को समझना होगा. चुनावी नतीजे की जीत हार की कसौटी के बरक्स और भी बहुत से पैमाने हैं जिस पर हमें उत्तर और दक्षिण को परखने की जरूरत है.

दरअसल इस बहस की शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक्स पर  किए गए एक पोस्ट की वजह से हुई जिसमें उन्होंने एक पत्रकार के वीडियो को रीपोस्ट किया. इसमें पत्रकार ने बताया था कि कैसे ‘चुनावों के नतीजे आने के बाद एक वर्ग उत्तर भारत बनाम दक्षिण भारत के बीच खाई पैदा करने की कोशिश कर रहा है.’ पीएम मोदी ने लिखा था, “उनके विभाजनकारी एजेंडे से सावधान रहें. 70 साल की आदत इतनी आसानी से नहीं जाएगी.”

इसके बाद, मामले ने तब और तूल पकड़ लिया जब विपक्षी दलों के गठबंधन इंडिया की सदस्य, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) के सांसद सेंथिलकुमार ने संसद में चुनाव के नतीजों के सम्बंध में एक ऐसी टिप्पणी की, जिसके लिए बाद में उन्हें माफ़ी भी मांगनी पड़ी. 

उनके शब्दों को सदन की कार्यवाही के रिकॉर्ड से हटा दिया गया है. सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और यहाँ कांग्रेस के नेताओं ने भी उनके बयान की आलोचना की है, और उनकी अपनी पार्टी ने भी इस बयान से किनारा कर लिया. तमिलनाडु बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष के. अन्नामलाई ने कहा, “उत्तर भारतीय मित्रों को पानी पूरी बेचने वाला, टॉयलेट बनाने वाला वगैरह बोलने के बाद अब ‘इंडी एलायंस’ के घटक डीएमके के सांसद गोमूत्र को लेकर मज़ाक कर रहे हैं.”

सेंथिलकुमार ने उन शब्दों के इस्तेमाल के लिए संसद में भी खेद प्रकट किया, मगर बीजेपी इसे लेकर आक्रामक बनी हुई है. केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी लेखी ने इस टिप्पणी को ‘सनातनी परंपरा और सनातनियों का अपमान’ क़रार दिया. लेकिन यह पहला मौक़ा नहीं है जब उत्तर भारत बनाम दक्षिण भारत पर राजनीति हो रही है और इसे स्वाभिमान की लड़ाई बनाने की कोशिश की जा रही है.

उत्तर और दक्षिण भारत के इस कथित विभाजन का लंबा इतिहास रहा है और उत्तर और दक्षिण भारत के राज्यों की प्रभावशाली पार्टियां इसे लेकर आक्रामक रही हैं.

इस बार भी राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद  राजनेताओं के बयानों के अलावा, सोशल मीडिया पर भी इस तरह कि टिप्पणियों और पोस्टों की बाढ़ सी आ गई.

लेकिन क्या हकीकत ऐसी ही है या फिर उत्तर और दक्षिण भारत के राज्यों में विभाजन को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम आने के साथ उत्तर और दक्षिण भारत में अंतर की बहस शुरू हो गई है। 

चुनावी लिहाज से तस्वीर बिल्कुल साफ है। उत्तर भारत में बीजेपी निर्विवाद रूप से सबसे ताकतवर दल है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में उसकी गाड़ी फंसी होने की अटकलें लगाई जा रही थीं, लेकिन जिस कुशलता से बीजेपी ने मध्य प्रदेश में सत्ता बनाए रखी और इसके साथ ही छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बड़े अंतर से जीत हासिल की, उससे उसके दबदबे के बारे में कोई शक नहीं रह गया है। हालांकि इन राज्यों में कांग्रेस के लिए अब कुछ नहीं बचा है, ऐसी तान छेड़ने वाले भी अति ही कर रहे हैं। उसी तरह, जैसे कोई यह कहे कि विधानसभा चुनाव में हार के बाद कर्नाटक बीजेपी के हाथ से निकल गया। कर्नाटक दक्षिण भारत में बीजेपी का गढ़ है। तेलंगाना के नतीजे भी बता रहे हैं कि पिछली बार के मुकाबले बीजेपी के वोट बढ़े हैं। लेकिन केरल, आंध्र और तमिलनाडु में बीजेपी के अभियान के बारे में राष्ट्रीय स्तर पर चाहे जितना तूमार बांधा जाता हो, चुनावी नतीजों पर बड़ा असर डालने की स्थिति में वह नहीं पहुंच सकी है।

सीटों के गुणा-गणित के चश्मे से मोटे तौर पर ऐसा ही अंतर नजर आता है। लेकिन उत्तर और दक्षिण भारत की अपनी आर्थिक और सामाजिक विशेषताएं भी हैं। ये चुनावी मिजाज पर भी असर डालती रही हैं।दक्षिण भारत का सामाजिक-सांस्कृतिक तेवर खास है?

उत्तर भारत में बौद्ध और जैन धर्मों के क्रांतिकारी विचार सामने आने के बाद दक्षिण से शंकराचार्य आते हैं और फिर सांस्कृतिक एकता पर जोर बढ़ता है। इसके बावजूद धर्म और भाषा के मामले में दक्षिण ने अपना खास तेवर गढ़ा। इसकी झलक आज भी दिखती है। चाहे पिछली सदी में पेरियार इरोड वेंकटप्पा रामास्वामी का ब्राह्मणवाद और मनुस्मृति विरोध हो या हाल में डीएमके नेता उदयनिधि स्टालिन का सनातन धर्म के बारे में दिया गया बयान, सामाजिक-सांस्कृतिक तेवर के मामले में दक्षिण भारत अलग ही दिखता है। 

पेरियार का कहना था कि मनुस्मृति में जन्म से ही मनुष्य का दर्जा तय होने की बात लिखकर भेदभाव को बढ़ावा दिया गया है। पेरियार की जस्टिस पार्टी से ही निकले अन्नादुरै ने डीएमके का गठन किया था। उसी डीएमके के नेता उदयनिधि ने कहा कि ‘सनातन ऐसा सिद्धांत है, जो जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव करता है। यह सामाजिक न्याय और समानता के खिलाफ है।  उत्तर में कबीर और रैदास जैसे संत-महात्मा सामाजिक बराबरी की बातें कहते रहे, लेकिन लहजे का फर्क साफ दिखता है।

भाषा के मामले में भी दक्षिण भारत हिंदी को लेकर असहज रहा है। पेरियार से लेकर मौजूदा नेताओं तक, सभी हिंदी विरोध में मुखर होते रहे हैं। हाल में देश का नाम इंडिया लिखें या भारत, इसको लेकर भी दक्षिण में विरोध के स्वर उत्तर से कहीं ज्यादा तीखे अंदाज में उठे। आरक्षण बढ़ाने से लेकर मंदिरों में दलित समुदाय के पुजारियों की नियुक्तियों तक, अगर यह सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषता दक्षिण भारत की राजनीति को अलग तेवर देती है। 

ऐसा भी नहीं है की बात यहीं खत्म हो जाती है अगर हम दक्षिण भारत के सामाजिक और आर्थिक पहलू पर नजर डालें तो यह उत्तर भारत से काफी अलग दिखाई देते हैं।

NSSO एजुकेशन सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि उत्तर के मुकाबले दक्षिण के ज्यादा स्कूलों में इंग्लिश मीडियम से पढ़ाई होती है। केरल में 12वीं तक के 61 प्रतिशत, तेलंगाना में 63 प्रतिशत, तमिलनाडु में 44 और कर्नाटक में 35 प्रतिशत स्कूल इंग्लिश मीडियम वाले हैं। इधर, बिहार में आंकड़ा 6 और यूपी में 14 प्रतिशत पाया गया। महाराष्ट्र और गुजरात में भी ऐसे 29 और 13 प्रतिशत ही स्कूल थे।

ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन 2020-21 के मुताबिक, उत्तर के मुकाबले दक्षिण के राज्यों में कॉलेजों में दाखिले का आंकड़ा ज्यादा था। दक्षिण में 18 से 23 साल तक की उम्र वाले करीब 50 प्रतिशत नौजवान कॉलेजों में पढ़ रहे थे। तमिलनाडु में 47, केरल में 43 और तेलंगाना में 39 प्रतिशत के मुकाबले बिहार और यूपी जैसे उत्तर भारत के बड़े राज्यों में आंकड़ा 16 और 23 प्रतिशत का था। नैशनल ऐवरेज 27 पर्सेंट का है और दक्षिण भारत में कोई भी ऐसा राज्य नहीं है, जहां हायर एजुकेशन में एनरोलमेंट का रेशियो इससे कम हो। हरियाणा और हिमाचल को छोड़कर उत्तर भारत के किसी भी राज्य में यह रेशियो नैशनल ऐवरेज से अधिक नहीं है।

उद्योग-धंधों, रोजगार और कमाई के मामले में दक्षिण के तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे राज्य बहुत आगे हैं। कर्नाटक में प्रति व्यक्ति आय अगर 2 लाख 65 हजार रुपये के आसपास है तो बिहार में 50 हजार और उत्तर प्रदेश में 70 हजार रुपये के करीब है। कुलमिलाकर दक्षिणी राज्यों में प्रति व्यक्ति आय यूपी-बिहार के आंकड़े के चार गुने से ज्यादा है। पिछले एक दशक में यह अंतर बढ़ा है। 2011-12 में दक्षिणी राज्यों की प्रति व्यक्ति आय करीब साढ़े तीन गुने पर थी। उद्योग-धंधे ज्यादा हैं, तो देश के कॉरपोरेट और इनकम टैक्स रेवेन्यू में दक्षिण का योगदान भी अधिक है। वहां से करीब 25 प्रतिशत टैक्स रेवेन्यू आता है। यूपी-बिहार का योगदान 3 प्रतिशत के आसपास है।

उत्तर बनाम दक्षिण की इस बहस में अगर हम कुछ सकारात्मक पक्षों पर ध्यान दें तो इससे इस देश का भला हो सकता है। क्योंकि अभी जो बखेड़ा खड़ा किया गया है दरअसल वह सियासी लाभ हानि के नजरिए से खड़ा हुआ बखेड़ा ज्यादा लगता है। बल्कि जरूरत यह है कि हम उत्तर दक्षिण के बीच आर्थिक और सामाजिक ताने-बाने को बेहतर करके एक सेतु बनाने का काम करें तो ज्यादा बेहतर होगा।