क्या बूढ़ा होना गुनाह है? जिन बच्चों को जन्म दिया, पालन पोषण शिक्षा-दीक्षा में कसर बाकी नहीं रखी उनके पास अपने वृद्ध हो चुके माता-पिता के लिए न घर में जगह है और न देखभाल का वक्त! इन बुजुर्गों को अपमानजनक उपेक्षा झेलनी पड़ती है और ऐसा जताया जाता है मानो वे व्यर्थ का बोझ बने हुए हैं. जिस देश में राम और श्रवणकुमार जैसी आज्ञाकारी कर्तव्यनिष्ठ पुत्र हुए वहां आज आधुनिक पीढ़ी का जैसा रूख देखा जा रहा है, उससे लगता है कि सचमुच कलियुग आ गया है. घर में रहकर भी बुजुर्गों से अजनबी के समान बर्ताव किया जाता है. वे कुछ नहीं चाहते सिर्फ प्रेम भरे दो शब्दों के भूखे रहते हैं लेकिन वह भी उन्हें नसीब नहीं होते. कुछ बुजुर्गों की स्थिति तो घर में ऐसी बना दी गई है मानो वह टूटे-फूटे कबाड़ हों. यह हकीकत चुभनेवाली है लेकिन इसमें सिर्फ संतानों की मानसिकता ही नहीं बल्कि अन्य पहलुओं का भी समावेश है.
जब पति-पत्नी दोनों जॉब कर रहे हों तो बुजुर्ग सिर्फ हाउसकीपर बनकर रह जाते हैं. घर की सूनी दीवारें ताकने के अलावा उनके पास विकल्प नहीं है. यदि अशक्त व बीमार हैं तो उनकी फिक्र करनेवाला कोई नहीं है. महंगाई से उपजी आर्थिक आवश्यकताओं तथा बेहतर जीवन स्तर की ललक ने पति-पत्नी दोनों को नौकरी करने के लिए विवश कर दिया है इसके अलावा सुशिक्षित युवा खाली रहना नहीं चाहते. उनका करियर पर ध्यान देना स्वाभाविक है लेकिन इस स्थिति में बुजुर्ग माता-पिता की घोर उपेक्षा होती है. आधुनिक पीढ़ी यह भी मानती है कि बुजुर्गों में उनके समान ज्ञान, विचार और दुनियादारी की समझ नहीं है. वे अपनी बातचीत में बुजुर्गों को शामिल नहीं करते या अपने किसी भी कार्यक्रम, फंक्शन से उन्हें दूर ही रखते हैं. जिसे बचपन में उंगली पकड़कर चलना, बोलना सिखाया, जिसकी अटपटी बातों को प्रेम से सुना वही बच्चा बड़ा होकर माता-पिता को ताना देता है कि आपने हमारे लिए किया ही क्या?
पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव
जब ग्रामीण और कस्बाई संस्कृति व रहन सहन था तब परिवार में बुजुर्ग सहजता अनुभव करते थे. पश्चिमी और महानगरीय संस्कृति में वे अनवांटेड या अवांछनीय बनकर रह गए. छोटे घरों में जगह नहीं है. पति-पत्नी अपने 2 बच्चों के साथ फैमिली की परिभाषा में आते हैं. इसमें दादा-दादी नाना-नानी की जगह नहीं रह गई है. चिकित्सा सुविधा ने लोगों की उम्र तो बढ़ा दी है लेकिन स्वास्थ्य अवस्था के अनुसार रहता है? बुजुर्गों की देखभाल कौन करे? किसके पास फुरसत और धैर्य है? यदि कोई बुजुर्ग बिस्तर से लग गया तो परिजन उसे बोझ मानने लगते हैं. यही वजह है कि वृद्धाश्रम और हॉसपाइस छोटे शहरों तक में खुल गए हैं. संपन्न और भरेपुरे परिवारों के बुजुर्ग भी वृद्धाश्रम में दाखिल करा दिए जाते हैं. आधुनिक पीढ़ी भावुक या संवेदनशील नहीं है बल्कि जरूरत से ज्यादा व्यावहारिक है. बुजुर्ग को कौन समय पर दवा देगा, बाथरूम तक पहुंचाएगा-लाएगा, कपड़े कौन बदलेगा? वह रात में खांसेगा सभी की नींद खराब होगी इन सारी बातों को सोचकर बुजुर्ग को उसके जीवन की संध्या में वृद्धाश्रम भेज दिया जाता है. यदि वहां से फोन आ गया तो भूले-भटके कभी देखने चले जाते हैं अन्यथा नहीं. भावनात्मक लगाव खत्म हो गया है. राज्य में कई वृद्धाश्रम ऐसे हैं जहां 15 से 20 लोगों की प्रतीक्षा सूची है. नौकरीपेशा लोगों के घरों में वृद्धजनों की देखभाल नहीं हो पाने के कारण डे केयर सेंटर की मांग भी बढ़ गई है. अब तो परिवारजनों की उपेक्षा से व्यथित कुछ बुजुर्गों ने स्वयं ही अपना नाम वृद्धाश्रम की प्रतीक्षा सूची में दर्ज करा लिया है.