आबादी के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव पर सभी की निगाहें रहेंगी. क्या वहां एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर या सत्ता बदल की कोई संभावना है? अधिकांश लोग मानेंगें कि अपने कुछ मंत्रियों के इस्तीफे के बावजूद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अच्छा खासा प्रभाव रखते हैं. जनता भी डबल इंजिन की सरकार का महत्व जानती है. राज्य में होने वाले 7 चरणों के चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी भी पूरा जोर लगाकर प्रचार करेंगे.
वे ऐसा सिर्फ योगी की मदद के लिए नहीं करेंगे बल्कि जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए भी यूपी जैसे अधिक मत-मूल्य वाले राज्य में बीजेपी की प्रचंड विजय उन्हें आवश्यक प्रतीत होती है.इसके अलावा मोदी वाराणसी से सांसद हैं. अयोध्या में रामलला के मंदिर और काशी विश्वनाथ कोरिडोर निर्माण के लिए मोदी के प्रयास उनके इस राज्य से गहरे जुड़ाव को दर्शाते हैं.
2014 के लोकसभा चुनाव के पहले तक मोदी की पहचान सिर्फ गुजरात से जुड़ी थी लेकिन अब वे 80 लोकसभा सीटों वाले यूपी के प्रतिनिधि हैं. इसी यूपी ने देश को नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा, चौधरी चरणसिंह, राजीव गांधी, चंद्रशेखर, अटलबिहारी वाजपेयी जैसे प्रधानमंत्री दिए. इनके साथ ही मोदी का समावेश करना होगा.
बढ़ता गया योगी का प्रभाव
2017 में जब योगी आदित्यनाथ संसद सदस्यता छोड़कर राज्य की राजनीति में आए तो वे विधान परिषद के लिए चुने गए थे लेकिन उन्होंने सधे हुए कदमों से अपनी लोकप्रियता बढ़ाई. अभी यह स्पष्ट नहीं है कि योगी अयोध्या से विधानसभा चुनाव लड़ेंगे या अपने गोरखपुर क्षेत्र से. प्रधानमंत्री ने कह भी दिया कि, योगी यूपी के लिए बहुउपयोगी हैं. इसमें संदेह नहीं कि साधन संपन्न पार्टी बीजेपी को 7 चरणों में होने वाले चुनाव का लाभ मिल सकता है.
जिन मंत्रियों स्वामीप्रसाद मौर्य व दारासिंह चौहान ने योगी सरकार और बीजेपी से इस्तीफा दिया उनके बारे में जनधारणा यही है कि यदि उन्हें योगी के नेतृत्व और नीतियों से इतनी शिकायत थी तो चुनाव आने तक मंत्री क्यों बने रहे? पहले ही इस्तीफा देकर अलग क्यों नहीं हुए? इन नेताओं को अब याद आ रह है कि योगी सरकार ने ओबीसी, दलितों, पिछड़ों, किसानों और बेरोजगारों पर ध्यान नहीं दिया? सरकार में रहते हुए उन्हें यह बात 5 वर्षों तक नहीं सूझी? यदि इन वर्गों की सुनवाई नहीं हो रही थी तो पहली ही सरकार से अलग हो जाना था.
अखिलेश की कितनी संभावना
बीजेपी के हाथों 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में मात खाने के बाद भी सपा नेता अखिलेश यादव इस समय योगी आदित्यनाथ के खिलाफ कड़े प्रतिद्वंद्वी बनते दिखाई दे रहे हैं. 2017 में उनका कांग्रेस से गठबंधन था और 2019 में बसपा के साथ लेकिन अब अखिलेश को किसी बैसाखी की आवश्यकता नहीं है. उन्होंने छोटी जाति आधारित पार्टियों से चुनावी गठजोड़ की है जिन पर वे अपना दबदबा कायम रखेंगे. राष्ट्रीय लोकदल नेता जयंत चौधरी तथा अन्य जातीय पार्टियों का सहयोग रहने से जाट, ओबीसी, पिछड़े वोट विपक्षी गठबंधन की ओर आ जाएंगे.
यद्यपि चौधरी चरणसिंह के पौत्र और अजीत सिंह के बेटे जयंत चौधरी को पहले सफलता नहीं मिली लेकिन तराई वाले क्षेत्र को जोड़ लिया जाए तो यूपी की कम से कम 100 सीटों पर किसानों का वर्चस्व है. इस इलाके में सिर्फ जाट ही नहीं, गुर्जर भी बीजेपी से नाराज हैं. लखीमपुर खीरी घटना के बाद से किसानों की नाराजगी कम नहीं हुई है. यदि अखिलेश की पार्टी को चुनाव में सफलता नहीं भी मिली तो भी राज्य की राजनीति में उनकी स्थिति काफी मजबूत रहेगी. मुलायम की सक्रिय राजनीति से निवृत्ति और चाचा शिवपाल के साथ आ जाने से अखिलेश पहले से बेहतर स्थिति में हैं.