जब सुरक्षा की गारंटी नहीं तो, कश्मीरी पंडित काम पर कैसे जाएं

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    प्रधानमंत्री विशेष रोजगार योजना के तहत घाटी में लौटे लगभग 6000 कश्मीरी पंडितों को जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने चेतावनी दी है कि यदि वे काम नहीं करेंगे तो उन्हें वेतन का भुगतान नहीं किया जाएगा. सिन्हा का तर्क अपनी जगह सही है कि जब कर्मचारी 6 महीने से दफ्तर नहीं जा रहे है तो उन्हें घर बैठे वेतन का भुगतान क्यों किया जाए! इस मामले का दूसरा पहलू यह है कि आतंकवादियों द्वारा की गई टारगेट फिलिंग की वजह से कश्मीरी पंडित अपने को अत्यंत असुरक्षित मान रहे हैं. 

    जब व्यक्ति को जान का खतरा हो और सुरक्षा की गारंटी न हो तो वह कैसे काम पर जाएगा? कश्मीर घाटी में एक शिक्षिका की स्कूल में घुसकर आतंकवादियों ने गोली मार कर हत्या की थी. एक बैंक कर्मी को बैंक में घुस कर शूट कर दिया था. दिन दहाड़े ऐसी हत्याएं हों और धमकियां मिलती रहे तो कोई कैसे अपनी ड्यूटी कर सकता है? कश्मीर घाटी में हिंदू कर्मचारियों को गेट पर सुरक्षा कर्मियों के घेरे वाली कॉलोनी में रखा गया है लेकिन जब वे स्कूल, बैंक, ऑफिस या बाजार जाते हैं तो उनकी सुरक्षा के लिए कोई साथ में नहीं रहता. इसी तरह स्कूल जानेवाले बच्चे भी असुरक्षित रहते हैं. 

    स्कूल बस में एक गनमैन भी हो तो वह आधुनिक हथियारों वाले आतंकी का मुकाबला कैसे कर पाएगा? परिवार के बुजुर्ग तो कॉलोनी के क्वार्टर में नजरबंद जैसे रहते है. जान जोखिम में डालकर कौन कश्मीर की वादियां देखने जाएगा? घाटी में अन्य राज्यों से काम करने आए मजदूरों की भी हत्या कर दी गई. कश्मीरी पंडित कर्मचारियों की गतिविधियां, आने-जाने के समय व रास्ते पर आतंकियों के मुखबिर निगाह रखते हैं. 

    केवल सुनसान जगह ही नहीं, कार्य स्थल जाकर भी उन्हें गोली मारी जाती है. हमले की ऐसी घटनाओं से भयभीत प्रवासी कश्मीरी पंडितों और जम्मू आधारित आरक्षित श्रेणी के कर्मचारियों ने मई में घाटी छोड़ दी थी. इनमें से अधिकतर पहले ही जम्मू चले गए हैं. यह तथ्य कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है कि घाटी में केवल 26 दिनों में चुन-चुन कर हत्या (टारगेट किलिंग) की 9 घटनाएं हुई. दहशतगर्दी से घबराकर कश्मीरी पंडित फिर पलायन करने को मजबूर हुए. लोगों के दिमाग में यह आशंका है कि कहीं फिर से 1990 के दशक का हिंसक दौर न लौट आए. 

    यह सब क्यों हो रहा है और इससे निपटने के क्या उपाय हैं, इसे समझने के लिए अतीत के उन स्याह दिनों की तरफ मुड़ना होगा. जब 1990 के दशक में पाकिस्तान ने घाटी में आतंक के दौर को प्रायोजित किया था, तो उसके तीन लक्ष्य थे. पहला, घाटी के माहौल को इतना बिगाड़ दो कि आम कश्मीरियों का दिल्ली की सरकार पर से बिल्कुल भरोसा हट जाए. दूसरा घाटी में 99 से सौ फीसदी मुस्लिम आबादी रहे और वहां अशांति बनी रहे. 

    तीसरा लक्ष्य उसका यह था कि जब घाटी में 99 फीसदी मुस्लिम आबादी हो जाएगी और वहां अशांति रहेगी, तो वह दुनिया को बता सकेगा कि कश्मीर के लोग भारत के साथ नहीं रहना चाहते. इन्हीं उद्देश्यों के तहत उसने कश्मीर में आतंकवाद के दौर को प्रोत्साहित किया था. अब 30 वर्ष बाद लगता है कि घड़ी की सुई फिर से उल्टी घूमने लगी है. 

    इसकी वजह है कि इस दौरान दिल्ली में जो सरकारें थीं, उस पर स्थानीय कश्मीरी नेताओं का दबाव था कि आप जिस तरह से कश्मीर की मदद करते हैं, वह करते रहिए, तभी जनता आपको साथ आएगी. अनुच्छेद 370 को खत्म करने के बाद घाटी के स्थानीय नेताओं की कमाई खत्म हो गई. ऐसे नेता चाहते थे कि हालात खराब रहे और उन्हें केंद्र से पैसा मिलता रहे. अब यह हो नहीं पा रहा है.