सिर्फ आंकड़े पर्याप्त नहीं, गरीबी वास्तव में दूर की जाए

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    विश्व बैंक पॉलिसी रिसर्च के वर्किंग पेयर और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के शोध पत्र ने भी इस बात की पुष्टि की है कि भारत में चरम गरीबी (एक्स्ट्रीम पायर्टी) लगभग समाप्त हो चुकी है. हमारे 130 करोड़ आबादी के देश में ऐसे भी दुर्गम आदिवासी इलाके हैं जहां गरीबी और कुपोषण की समस्या बनी रहती है. इतने पर भी इन विश्व संस्थाओं ने माना है कि ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी का अनुपात घटा है. 

    गरीबी का आंकड़ा 2011 में 32.5 प्रतिशत था जो 2019 में घटकर 10.2 प्रतिशत हो गया. इस तरह 8 वर्षों में  चरम गरीबी में 12.3 प्रतिशत की गिरावट आई है. शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में गरीबी अत्यंत तेजी से कम हुई है. ग्रामीण भागों में 14.7 तथा शहरों में 7.9 फीसदी गरीबी घटी है. यहां पर भी गौर करना होगा कि इन 8 वर्षों के बाद कोरोना महामारी ने कितने ही लोगों की रोजी-रोटी छीन ली. लघु और मध्यम उद्योग बंद हो गए. उद्योगों में छंटनी हुई. 

    ऐसी स्थिति में क्या विश्व बैंक और आईएमएफ के आंकड़ों को सच माना जाए? क्या यह वास्तविकता दर्शाते हैं? जब देश में इतनी महंगाई है तो मध्यम वर्ग और गरीब दोनों की फजीहत होना तय है. जब जीवन स्तर घट जाता है तो व्यक्ति गरीबी की ओर जाने लगता है. क्या इन आंकड़े तैयार करनेवालों में ऊंची इमारतों के पीछे के झोपड़े देखे हैं. कोरोना के दौरान लोगों ने घर का काम व बर्तन कपड़ा धोने वाली  पहरी को आने से मना कर दिया था. लोगों को रोजगार नहीं मिल पा रहा था लॉकडाउन से पड़े प्रयास का इस रिपोर्ट में उल्लेख नहीं है.

    योजनाओं का लाभ गलत लोग भी उठाते हैं

    एक अन्य पहलू यह भी है कि गरीबों की मदद के लिए बनाई गई योजनाओं का लाभ लेने के लिए कितने ही लोग दस्तावेजों के जारिए नकली गरीब बन जाते हैं. ऐसे भी लोग हैं जो वास्तव में किसान नहीं है लेकिन उन्हें प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना का लाभ मिला है. ऐसे लोगों का पता लगाया जाना चाहिए जो चालाकी से गरीबों का हक छीनते हैं. 

    अभी कुछ वर्ष पहले तक कहा जाता था कि देश में 25 प्रतिशत ऐसे लोग है जो भूखे पेट सोने को विवश हैं. गरीबी का आंकड़ा तैयार करने वाले अधिकारी वातानुकूलित कक्ष व दुर्गम रिपोर्ट बना लेते हैं. क्या उन्हें किसी ने ग्रामीण व दुर्गम क्षेत्रों का दौरा करते देखा है. यदि गरीबी दूर करने की दिशा में सकारात्मक परिवर्तन आया है तो वह सिर्फ दस्तावेजों तक सीमित नही रहना चाहिए. वह जमीनी स्तर पर भी नजर आना चाहिए.

    सक्षम बनाना भी जरूरी

    यह ठीक है कि गरीबों को मुफ्त अनाज देने की योजना चलाई जा रही है. इससे उनका पेट भले ही भर जाए, गरीबी दूर नहीं होती. गरीबी तब मिटती है जब व्यक्ति को नौकरी या रोजगार देकर सक्षम और आत्मनिर्भर बनाया जाए. वह इस योग्य बन जाए कि खुद अनाज और जरूरी वस्तुएं खरीद सके. गरीब गांव के हों या शहर के, उनकी समस्या एक ही है. यह सुनिश्चित करना चाहिए कि गरीबों और आदिवासियों के कल्याण के लिए बनी योजनाओं में भ्रष्टाचार न होने पाए. 

    यद्यपि प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना से छोटे किसानों को प्रति वर्ष 6,000 रुपए मिल रहे हैं परंतु महंगाई भी तेजी से बढ़ी है. किसानों को फसलों का उचित भाव दिलाने का कोई सक्षम तंत्र नहीं है. यदि जीतोड़ मेहनत के बाद भी किसान को 1 रुपए किलो प्याज बेचने की नौबत आएतो उसकी दुर्दशा समझी जा सकती हैं. ऐसी कितनी ही रिपोर्ट आएंगी लेकिन क्या जमीनी स्तर पर गरीबों की हालत वास्तव में सुधरेगी?