विपक्ष के लिए बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा

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– मनोहर मनोज

नई दिल्ली: केन्द्र सरकार के खिलाफ लामबंद हो रहे विपक्ष के लिए बेरोजगारी नंबर एक मुद्दा बनी हुई है. वैसे बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार भारत के राजनीतिक पटल पर हमेशा सर्वकालिक मुद्दा रहे हैं. मौजूदा सरकार पर विपक्ष द्वारा बेरोजगारी को लेकर किया जा रहा हमला सरकार द्वारा स्थितियों को पूरी तरह से नहीं संभाल पाने को लेकर है. यदि अर्थव्यवस्था की दृष्टि से देखें तो जितने भी व्यक्ति इच्छुक हों, उन सबके लिए रोजगार की उपलब्धता कभी पैदा नहीं होती. लेकिन फासला कम से कम हो इसकी कोशिश सभी सरकारें करती हैं. रोजगार प्रदाताओं की दो मुख्य श्रेणी हैं. एक है सरकारी क्षेत्र और दूसरा है निजी क्षेत्र. सरकारी क्षेत्रों में असंगठित व संगठित क्षेत्रों के कामगारों के लिए रोजगार मॉड्यूल नहीं बनाया गया.

1,85,000 स्टार्टअप

यदि सरकार की तरफ से उत्पन्न किये जाने वाले रोजगारों की बात करें तो इस मामले में मोदी सरकार की रोजगार नीति पर कोरोना के पहले भी भारी उदासीनता का आरोप लगता रहा है. जबकि सरकार हमेशा से यह मानती रही है कि बेरोजगारी से निपटने का कारगर तरीका निरंतर बढ़ता स्वरोजगार और उद्यमशीलता है. यही वजह है कि मोदी सरकार बार बार रोजगार के संबंध में अपनी मुद्रा लोन योजना का जिक्र करती रही है. इसके तहत मौजूदा साल में करीब 4.5 लाख करोड़ रुपये का लोन आवंटित किया गया है और पिछले वर्षों में यह कुल 23 लाख करोड़ रुपये, करीब चालीस करोड़ लोगों को बतौर कारोबार लोन प्रदान किये गए हैं. शैक्षिक रोजगारों को लेकर सरकार का अघोषित रूप से यह कहना है कि वह सरकारी दफ्तरों में असीमित रोजगार नहीं दे सकती और इसे लेकर वह स्टार्टअप व्यवसाय का हवाला देती है, जिसके तहत भारत में अब तक 85 हजार स्टार्टअप तैयार हुए हैं.

देश में स्वरोजगार व उद्यमशीलता से बेरोजगारी का संपूर्ण समाधान नहीं निकाला जा सकता है. क्योंकि हर कामगार स्वरोजगारी नहीं हो सकता है और बहुतायत कामगार वर्ग या तो सरकारी विभागों की तरफ से या निजी निगमों की रोजगार रिक्तियों पर भरोसा लगाये रहता है. इस मामले में मोदी सरकार की समझ पूर्ववर्ती सरकारों की भांति ही अस्पष्ट की रही है. सरकारी निर्माण परियोजनाओं-सागरमाला, डिजिटल इंडिया की वजह से स्वंयमेव रोजगार सृजन कायम है पर शैक्षिक रोजगार को लेकर सरकार द्वारा अपने तमाम विभागों की जरूरी रिक्तियों को भरने को लेकर टालमटोल करना और अनिर्णित रहना साफ साफ दिखायी पड़ता है.

कोई नहीं देता पक्की नौकरी

कोई भी सरकार पक्की सरकारी नौकरी अब नहीं देना चाहती है. सरकारों को लगता है कि आजीवन सरकारी दामाद यानी पहले साठ साल तक मोटी तनख्वाह और फिर उसके बाद मोटी पेंशन युक्त नौकरी सरकार के राजखजाने पर बोझ डालती है. सरकार यह क्यों नहीं सोचकर चलती है कि प्रशासन की विशाल मशीनरी को संचालित करने, सरकार के तमाम कार्यक्रमों नीतियों व योजनाओं के क्रियान्वयन की जरूरतों के हिसाब से रोजगार सृजन, वाजिब संविदा दर पर निर्धारित राष्ट्रीय नीति के जरिये संचालित किया जाए, तो इसमें कोई गलत बात नहीं होगी. सरकार  द्वारा रोजगार दिया जाना कोई खैरात नहीं है और न ही किसी पर यह कोई अहसान है.

विडंबना ये है कि कोई भी सरकार बोल्ड निर्णय लेने के बजाय टुकडे टुकड़े में राजनीतिक दबावों के तहत ठेका और स्थायी दोनो तरह से सरकारी रिक्तियों की भर्ती करती हैं. इससे समाज में विषमता, विसंगति और असमानता की स्थिति कायम होती है. पिछले चुनाव में राजनीतिक दबाव में केन्द्र सरकार ने रेलवे में दो लाख नियुक्तियां किये जाने की घोषणा की पर वह अमल में नहीं आया. अब मोदी सरकार बंचेज में सरकार के अलग अलग पदों की एकमुश्त नियुक्ति पत्र बांटकर राजनीतिक लोकप्रियता पाने का प्रयास कर रही है. पर संपूर्णता की दृष्टि से देखें तो भारत सरकार में अलग अलग श्रेणी के करीब दस लाख स्वीकृत पद खाली पड़े हैं, जिन पर भर्तियां नहीं हो रही हैं. इसी तरह से राज्य सरकारों के यहां भी करीब पचास लाख पद खाली पड़े हैं. सरकारें ये समझती हैं कि वे इन खाली जगहों को तब तक नहीं भरेंगी, जब तक इसके राजनीतिक फायदे न हों.