Editorial 77 percent of undertrial prisoners, why justice is not available to the poor

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देश की जेलों में 77 प्रतिशत विचाराधीन कैदी हैं जिन पर अभी आरोप सिद्ध नहीं हुए हैं. इनमें से बहुत से तो ऐसे हैं, जो अपने ऊपर लगे आरोप की निर्धारित अधिकतम सजा से भी ज्यादा दिनों से जेल में हैं. ये सभी गरीब लोग हैं. दिसम्बर 2017 और दिसम्बर 2021 के बीच जो विचाराधीन कैदी 5 वर्ष से अधिक सलाखों के पीछे हैं, उनकी संख्या दोगुनी से ज्यादा बढ़कर 11,490 हो गई है. भारत में लगभग 5 करोड़ लम्बित मामले हैं.

पूर्व सीजेआई यूयू ललित के अनुसार आपराधिक मामलों में फंसे 70 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे वाले हैं. इस संदर्भ में, भारत की न्याय वितरण व्यवस्था इस कारण से भी कमजोर हुई है; क्योंकि कानूनी सहायता प्रदान करने के मामले में चिंताजनक कमी आयी है. 2020 व 2022 के बीच 67 प्रतिशत लीगल सर्विसेज क्लीनिक्स कम हुए हैं. 2022 के अंत तक मात्र 4,742 क्लीनिक्स थे. गरीब व्यक्ति अपनी जमानत नहीं करा पाते या फिर उन्हें कानूनी प्रावधानों की जानकारी नहीं रहती.

दिल्ली व चंडीगढ़ को छोड़कर कोई राज्य व केंद्र शासित प्रदेश ऐसा नहीं है, जो अपने कुल वार्षिक खर्च में से 1 प्रतिशत से अधिक न्यायपालिका पर निवेश करता हो, जबकि हाईकोर्ट में न्यायाधीशों के 30 प्रतिशत स्थान रिक्त पड़े हैं. दिसम्बर 2022 तक देश में हर 10 लाख लोगों के लिए मात्र 19 न्यायाधीश थे. विधि आयोग ने 1987 में ही सुझाव दिया था कि अगले एक दशक में प्रत्येक 10 लाख लोगों पर 50 न्यायाधीश होने चाहिए. रिक्त स्थानों की समस्या केवल न्यायपालिका में ही नहीं है बल्कि पुलिस, जेल स्टाफ व लीगल एड में भी है. पिछले एक दशक के दौरान पुलिस में महिलाओं की संख्या दोगुनी हुई है, लेकिन वह कुल बल का 11.75 प्रतिशत ही हैं. पुलिस में अधिकारियों के लगभग 29 प्रतिशत स्थान रिक्त पड़े हैं. पुलिस व जनता का अनुपात 152.8 प्रति लाख है, जबकि अंतरराष्ट्रीय मानक 222 है.

जेलों में क्षमता से 130 प्रतिशत अधिक भीड़ है और दो तिहाई से अधिक कैदी (77.1 प्रतिशत) जांच या ट्रायल पूर्ण होने की प्रतीक्षा में हैं. अधिकतर राज्य पुलिस, जेल व न्यायपालिका पर न तो बदलती आवश्यकताओं के अनुसार अपने बजट में वृद्धि कर रहे हैं और न ही केंद्र से मिल रहे फंड्स का पूरा इस्तेमाल कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन बी लोकुर का कहना है है कि ट्रेनिंग व इंफ्रास्ट्रक्चर के लिहाज से कुछ सुधार तो अवश्य आया है, लेकिन अभी काफी काम किया जाना शेष है. महिला पुलिस अधिकारियों की निश्चित रूप से बहुत कमी है आईजेआर के अनुसार पुलिस में केवल 8 प्रतिशत महिला अधिकारी हैं.

लोगों को मुफ्त कानूनी सहायता उपलब्ध कराने की भी जरूरत है ताकि न्यायपालिका में उनका विश्वास बढ़ सके. हर 4 में से 1 पुलिस स्टेशन में एक भी सीसीटीवी नहीं है और 10 पुलिस स्टेशनों में से लगभग 3 में महिला हेल्प डेस्क नहीं है, जबकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में निरंतर वृद्धि हो रही है. कमिटी ऑफ नेशंस का सदस्य होने के कारण भारत ने वायदा किया हुआ है कि वह 2030 तक सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करेगा और सभी स्तरों पर प्रभावी, जवाबदेही व समावेशी संस्थाओं का निर्माण करेगा. लेकिन आईजेआर-2022 में जो अधिकारिक डाटा सामने लाया गया है, उससे मालूम होता है कि अभी मंजिल बहुत दूर है.