पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दोटूक शब्दों में कहा कि मौजूदा सरकार ‘मंदी’ शब्द को स्वीकार ही नहीं करती और वास्तविक खतरा यह है कि यदि समस्याओं की पहचान नहीं की गई तो सुधारात्मक
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दोटूक शब्दों में कहा कि मौजूदा सरकार ‘मंदी’ शब्द को स्वीकार ही नहीं करती और वास्तविक खतरा यह है कि यदि समस्याओं की पहचान नहीं की गई तो सुधारात्मक कार्रवाई के लिए विश्वसनीय हल का पता नहीं लगाया जा सकता. उनकी बात बिल्कुल सच है. यदि मर्ज ही पहचाना न जाए तो दवा कैसे दी जाएगी? आखिर सरकार वास्तविकता को क्यों झुठला रही है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने भी अपने बजट भाषण में मंदी या सुस्ती का कोई उल्लेख नहीं किया. आम जनता भी समझती है कि मंदी की वजह से उद्योग बंद हुए तथा बेरोजगारी बढ़ रही है. मांग नहीं बढ़ने से उत्पादन भी नहीं बढ़ पा रहा है. महंगाई के मोर्चे पर भी सरकार विफल है. खाद्य-पेय पदार्थ की कीमत बढ़ने से जनवरी में खुदरा महंगाई दर बढ़कर 7.59 प्रतिशत पर जा पहुंची जो पिछले 6 वर्षों में उच्चतम स्तर पर है. थोक मूल्यों पर आधारित महंगाई की दर भी जनवरी में बढ़कर 3.1 प्रतिशत हो गई. महंगाई में यह वृद्धि आलू-प्याज जैसी दैनिक उपयोग की वस्तुओं की कीमतें बढ़ने से हुई. विगत कुछ सप्ताह में आए आर्थिक आंकड़ों से ऐसा महसूस होने लगा था कि अर्थव्यवस्था अब सुस्ती के चंगुल से छूट रही है लेकिन महंगाई तथा औद्योगिक उत्पादन के आंकड़ों ने चिंता और बढ़ा दी. केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) के अनुसार, जनवरी में खाद्य पदार्थों की खुदरा महंगाई दर 13.63 प्रतिशत रही. सब्जी, दाल, तेल के दाम तेजी से बढ़े. लगातार तीन महीने से खुदरा महंगाई दर दहाई में है. कुल महंगाई में खुदरा महंगाई का योगदान लगभग 50 प्रतिशत रहता है. सरकार लगातार दावा करती आ रही है कि महंगाई पर काबू पा लिया गया है जबकि जमीनी हकीकत इसके विपरीत है. खुदरा बाजार में दाम कितने भी बढ़ जाएं लेकिन किसानों को इसका लाभ नहीं मिल पाता. अर्थव्यवस्था बिचौलियों के हाथों में खेल रही है. आर्थिक सुस्ती के माहौल में सभी चीजें महंगी होती चली जा रही हैं. क्या सरकार ऐसा नहीं कर सकती कि दाम कम करके खपत बढ़ाए? क्या वह बाजार में बिकने वाली चीजों की अधिकतम कीमतें तय नहीं कर सकती?