हर दिन बढ़ रही आवश्यकता, जल संकट पर नये सिरे से चर्चा हो

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बेंगलुरु में पानी का संकट लगातार बढ़ रहा है और वहां ठीक वैसी ही स्थिति पैदा हो गयी है, जैसी कोपेनहेगन में थी, जहां पानी राशन कार्ड पर बिका था। असल में पानी, हवा और मिट्टी के प्रति हमने कभी समझ नहीं बनायी। लेकिन अब जब हालात बिगड़ने लगे हैं, तब हमारी बहस शुरू हो रही है। पानी हमारे लिए आवश्यक है, इसमें कोई सवाल नहीं है। जल बिन जीवन संभव नहीं है। प्रतिदिन दो से तीन लीटर पानी पीने का तो चाहिए ही। 3। 5 करोड़ से अधिक लोग आज इस देश में पानी के अभाव में जी रहे हैं और हमारी आवश्यकता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। करीब 812 करोड़ लीटर पानी का हम प्रतिदिन दोहन कर लेते हैं। ऐसे में सवाल यह भी पैदा होता है कि हमारी पानी की उपलब्धता क्या है।

जल  संकट पर अब नए सिरे से चर्चा जरूरी है। साल 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ था, तो प्रति व्यक्ति 5,000 क्यूबिक मीटर पानी उपलब्ध था। साल 2021 से 2031 के बीच यह 1,486 से गिरकर 1,367 क्यूबिक मीटर हो जायेगा। इसका अर्थ यह है कि ऐसी कम उपलब्धता के साथ हम पानी के संकट में हैं। चिंताजनक यह भी है कि जितना कम पानी उपलब्ध होगा, उतना ही वह प्रदूषित भी होता चला जायेगा। हमें 4,000 अरब क्यूबिक मीटर पानी जो बारिश की कृपा से मिलता है, उसका हम मात्र 1,100 क्यूबिक मीटर ही उपयोग में ला पाते हैं। अपने देश में 70 फीसदी पानी उपयोग के लिए अयोग्य पाया गया है। यही कारण है कि बोतलबंद पानी का व्यापार लगातार बढ़ता जा रहा है।  

ध्यान रहे, एक लीटर पानी की बोतल के पीछे तीन लीटर पानी खराब होता है और बोतलें प्लास्टिक प्रदूषण भी पैदा कर रही हैं। जब इस्तेमाल किया गया भारी मात्रा में गंदा जल नदियों, जलाशयों या अन्य जल निकायों में जायेगा, तो कई बीमारियों को जन्म देगा। साल 2019 में करीब 23 लाख लोग असमय मौत के शिकार हुए थे। जब शहरों में 17 प्रतिशत की दर से आबादी बढ़ रही हो, तो उसी के अनुसार पानी की मांग भी बढ़ेगी और पानी प्रदूषित भी होगा। एक बेहतर आर्थिकी तभी संभव होती है, जब हमारी पारिस्थितिकी भी मजबूत हो। आज शायद कोई भी राज्य ऐसा नहीं है, जहां पानी का संकट किसी न किसी रूप में खड़ा ना हो। बिहार में पहले 1,200 से 1,500 मिलीमीटर बारिश होती थी, जो अब 800 मिलीमीटर रह गयी है।

हमारे देश में मानसून पानी का सबसे बड़ा स्त्रोत है। इसका संचय करने की व्यवस्था को लेकर सवाल हैं। कैच द रेन, अमृतसरोवर जैसे कार्यक्रम इंगित करते हैं कि सरकार इस पर गंभीर हुई है। लेकिन राज्यों के स्तर पर समुचित सक्रियता नहीं है। यह तो तय है कि आने वाले समय में अगर हम सामूहिक रूप से नहीं जुटेंगे, तो संकट बहुत गहरा हो जाएगा।