पड़ोसी ने हमसे कहा, ‘‘निशानेबाज, साधु-संत भी अपना श्रंगार करते हैं. वे आईना देखकर अपने संप्रदाय का तिलक लगाते हैं. शैव और वैष्णवों का त्रिपुण्ड और तिलक अलग-अलग होता है. कहा जाता है कि साधु के लिए धातु का स्पर्श वर्जित है फिर भी वे धातु से बने उस्तरे से सिर मुंडवाते हैं. आपने सुना होगा- मूड मुड़ाए भये संन्यासी!’’
हमने कहा, ‘‘धातु का मतलब सिक्के से है. आज के जमाने में सिक्कों का कोई वैल्यू नहीं रह गया है. कोई नोटों में दान-दक्षिणा दे तो संत-महंत लोककल्याण के लिए उसे स्वीकार कर लेते हैं. उन्हें भी आश्रम का खर्च, देव पूजा, गोपालन और भंडारा करने के लिए रकम लगती है. जहां तक जटाधारी साधु-संतों की बात है, उन्हें भी अपनी केशसज्जा के लिए धन की जरूरत पड़ेगी.’’
पड़ोसी ने कहा, ‘‘निशानेबाज आप कैसी बात कर रहे हैं? साधुसंत बड़ के पेड़ के दूध से अपनी जटाएं बना लेते है और फिर उन्हें जटामंडल का रूप देकर बांधलेते हैं. आपने रामायण में पढ़ा होगा कि भगवान राम के वनवास में चले जाने पर भरत नंदीग्राम में आकर रहने लगे थे. उन्होंने राम के अयोध्या लौटने तक अपनी जटा बढ़ा ली थी. जब भगवान राम 14 वर्ष बाद लौटे तो सबसे पहले उन्होंने अपने भाई भरत की जटाएं खुलवाई. नागा साधुओं के 17 श्रंगार में पंचकेश का विशेष महत्व है. इसमें लंबी जटाओं को 5 बार घुमाकर बांधा जाता है. अब जमाना बदल गया. भोपाल में साधु-संतों के लिए जटा बांधने के लिए बाकायदा एक स्टूडियो खुला है. करिश्मा शर्मा नामक ब्रेडिंग आर्टिस्ट (चोटी डालने की कला में प्रवीण) महिला ने अबतक 40 साधुओं की जटाएं व्यवस्थित रूप से बांधी हैं. इससे साधु प्रेजेंटेबल दिखते हैं.’’
हमने कहा, ‘‘एक महिला का साधु को स्पर्श करना क्या उचित है. इसके अलावा अबतक साधु अपनी जटा खुद ही धोते और बांधते थे. उन्हें स्टुडियो में क्यों जाना पड़ रहा है?’’
हमने कहा, ‘‘साधु महिलाओं को बेटी, बहन या माता के रूप में देखे तो स्पर्श में कौन सी दिक्कत है. साधु संत नदी की बालू से जटाएं धोते रहे हैं. जटाजुट में पारा डालने से दुर्गंध नहीं आती. अब संतों के लिए स्टूडियो खुल जाने से उनकी जटाओं में शैम्पू किया जाएगा. रोलर से जटा को घुंघराला बनाया जा सकेगा और व्यवस्थित आकर्षक रूप से चोटियां डालकर बांधा जाएगा. इससे जटाएं मजबूत होंगी और टूटेंगी भी नहीं. जब स्टूडियो खुला है तो फैशियल, मैनीक्योर, पैडीक्योर की भी सुविधाएं वहां जरूर उपलब्ध होंगी.’’