Mayo and Medical, GMCH

Loading

  • 10 करोड़ मिलते हैं मेडिकल को 
  • 6 करोड़ का हैं मेयो का बजट 
  • 20 प्रतिशत ही दवाई मिल पाती 

नागपुर. केवल केंद्र ही नहीं बल्कि राज्य सरकार द्वारा भी वैद्यकीय क्षेत्र पर किया जाने वाला खर्च कम है. मरीजों की संख्या हर वर्ष बढ़ती जा रही हैं लेकिन मेडिकल कॉलेजों के बजट में वृद्धि नहीं हो रही है. शासकीय वैद्यकीय महाविद्यालय व अस्पताल को हर वर्ष दवाई खरीदी के लिए करीब 10 करोड़ का बजट मिलता है. वहीं इंदिरा गांधी शासकीय वैद्यकीय महाविद्यालय व अस्पताल (मेयो) को 6 करोड़ रुपये ही मिलते हैं. बजट कम होने का ही नतीजा है कि मरीजों को सभी दवाइयां नहीं मिल पाती. कई बार दवाइयों की आपूर्ति में देरी होने से भी दिक्कतें बढ़ जाती हैं.

दरअसल सरकार द्वारा मेडिकल कॉलेजों को बजट के तहत निधि उपलब्ध कराई जाती है. इस निधि से दवाइयों के अलावा अन्य सामग्री भी खरीदी जाती है. अब तक दवाइयों सहित अन्य सामग्री की खरीदी ‘हाफकिन बायो-फार्मास्युटिकल कॉर्पोरेशन लिमिटेड’ द्वारा की जाती थी लेकिन कंपनी की सुस्त कार्यप्रणाली के मद्देनजर अब सरकार ने महाराष्ट्र वैद्यकीय खरीदी प्राधिकरण स्थापित किया गया है.

जानकारों की माने तो केवल कंपनी बदलने से ही व्यवस्था में सुधार नहीं हो सकेगा. इसके लिए आवश्यक है कि बजट में बढ़ोतरी की जाये. मेडिकल और मेयो को मिलने वाला बजट पिछले अनेक वर्षों से यथावत है. इसमें कोई वृद्धि नहीं की गई है. जबकि मरीजों की संख्या दोगुनी हुई है. यही वजह है कि बजट में मेडिकल को 20 करोड़ और मेयो को 15 करोड़ मिलने चाहिए. सरकार द्वारा इस दिशा में कदम उठाया जाना चाहिए. यदि निधि में बढ़ोतरी हो गई तो मेडिकल कॉलेजों की एक बड़ी समस्या का समाधान हो सकता है. मेडिकल कॉलेजों को राज्य सरकार के बजट के अलावा जिला प्रशासन द्वारा भी डीपीडीसी से समय-समय पर निधि उपलब्ध कराई जाती है लेकिन उक्त निधि मिलने में काफी वक्त लग जाता है. शासकीय प्रक्रिया इतनी जटिल होती है कि प्रस्ताव के अनुसार निधि नहीं मिलती.

निवासी डॉक्टर झेलते हैं परेशानी 

सेंट्रल मार्ड द्वारा पिछले अनेक वर्षों से दवाइयां उपलब्ध कराने की मांग की जा रही है. इसका मुख्य उद्देश्य यह है कि मरीजों और परिजनों से सीधे तौर पर निवासी डॉक्टरों का ही संपर्क होता है. जबकि दवाइयों की किल्लत की वजह से विवाद होते हैं तो इसका शिकार निवासी डॉक्टर ही बनते हैं. डॉक्टरों के संरक्षण के कानून भी बना है लेकिन हर वर्ष इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं जिसमें निवासी डॉक्टरों के साथ मारपीट की जाती है. सरकारी मेडिकल कॉलेजों की ओपीडी में आने वाले मरीजों को महज 10-20 फीसदी ही दवाइयां मिल पाती हैं. जबकि वार्ड में भर्ती मरीजों को 20 फीसदी दवाइयां मिलती हैं.

अधिकांश सर्जिकल सामग्री मरीजों को बाहर से खरीदनी पड़ती है. इतना ही नहीं कई बार निर्धन व जरूरतमंद मरीज होने पर निवासी डॉक्टर तक दवाइयां खरीदकर देते हैं. इस स्थिति में सुधार की आवश्यकता है. एक ओर जहां सरकार द्वारा विविध प्रकल्पों पर करोड़ों रुपये खर्च किये जाते हैं, वहीं दूसरी ओर अत्यंत आवश्यक होने के बाद भी दवाइयों का बजट नहीं बढ़ाया जाता है. मुख्य बात यह है कि मेडिकल और मेयो के लिए दो बजट मंजूर है वह पुरानी बेड के आधार पर है. यानी मेडिकल को 1,401 और मेयो को 550 बेड के अनुसार दवाइयों का बजट मिलता है. जबकि मेडिकल में वर्तमान में 2,000 और मेयो में 850 बेड हो गये हैं. सरकार को इस पहलू पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए.