The movement of zip and puns by-election intensified, all party leaders increased public relations

  • यूपी के चुनावों में डार्क हॉर्स साबित हो सकती है बसपा
  • अपने सॉलिड वोट बैंक के नाते आज भी सपा से बीस है बसपा

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लखनऊ : उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में चुनावी सक्रियता (Electoral Activism) ने अब जोर पकड़ लिया है। मुख्यमंत्री (Chief Minister) योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) जिलों का दौरा कर जनता से सीधे संवाद बना रहे हैं। विपक्षी दलों के नेता भी सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार (BJP Government) का मुकाबला करने के लिए अपनी रणनीति पर काम करने लग गए हैं।

वर्तमान में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बाद विपक्षी नेताओं में सबसे अधिक फोकस अखिलेश यादव पर है। तमाम चुनावी सर्वे में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) के बाद बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को नंबर तीन की पोजिशन दी जा रही हैं। कांग्रेस को सबसे कमजोर राष्ट्रीय दल हर चुनावी सर्वे में बताया जा रहा हैं।

मायावती को यूपी में मुसलमान वोट चाहिए

इन चुनावी आकलन में भले ही बसपा को राज्य में तीसरे नंबर की पार्टी बताया जा रहा है, मगर बसपा सुप्रीमो मायावती की यूपी के चुनाव में अहमियत घटी नहीं है। बहुतों का मानना है कि इन चुनावों में मायावती को खारिज करने वाले भारी मुगालते में हैं। मायावती अब भी इन चुनावों में डार्क हॉर्स साबित हो सकती हैं। अभी पिछले दिनों उन्होंने पूरे भरोसे से कहा भी था कि पार्टी छोड़ने वाले अकेले जाते हैं। स्वाभाविक रूप से उनका यह भरोसा अपने कैडर की ओर ही था। शिवपाल सिंह बनाम अखिलेश यादव के बीच चल रही खींचतान ऐसे मुकाम में पहुंचेगी जहां से मायावती की पौ-बारह होगी। मायावती को यूपी में मुसलमान वोट चाहिए। बसपा में दलित और ब्राह्मण वोटों का जो पुराना आधार है उसे वह बनाए रखने पर जोर दे रही हैं। ऐसे में अब यूपी में जैसा चुनावी समीकरण बन रहे हैं उनमें बसपा सबको चौंका सकती है। मायावती को इन चुनावों को त्रिकोणात्मक बनाते हुए सपा को पछाड़ कर भाजपा से मुकाबला करते हुए दिखाना चाहती हैं।

बसपा को चुनावी लड़ाई में महत्व नहीं दिया गया 

गौरतलब है कि राज्य में हुए विभिन्न चुनावों सर्वे में भाजपा को यूपी में 41 से 44 फीसदी वोट हासिल होने बात कही गई है। जबकि सपा के खाते में 32 फीसदी, बसपा के खाते में 15 फीसदी, कांग्रेस को 6 फीसदी और अन्य के खाते में 6 फीसदी वोट जा सकने का दावा किया गया है। सीटों के लिहाज से अगर देखें तो भाजपा के खाते में सबसे अधिक 241 से 249 सीटें और सपा के हिस्से में 130 से 138 सीटें जाने का दावा चुनावी सर्वे के आधार पर किया गया है। बसपा 15 से 19 के बीच और कांग्रेस 3 से 7 सीटों के बीच सिमट सकती है, यह भी कहा गया है। इसी तरह के दावे कई अन्य चुनावी सर्वे में किए गए हैं। हर चुनावी सर्वे में भाजपा से सपा का सीधा मुकाबला होना बताया गया है। बसपा को चुनावी लड़ाई में महत्व नहीं दिया गया है। निश्चित तौर पर ये मायावती की पार्टी के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। ऐसे चुनावी सर्वे को मायावती अपनी पार्टी के लिए नुकसान पहुचाने वाला मानती हैं। मायावती के नजदीकी नेताओं के अनुसार बसपा का वोटर चुनावी सर्वे में हिस्सा नहीं लेता और वह खामोश रहकर चुनाव में चौंकाता है। इसीलिए बहनजी ने चुनावी सर्वे पर रोक लगाने की मांग की है। मायावती की एक मंशा यह भी है कि सपा नहीं बसपा ही राज्य में भाजपा को हर सीट पर चुनौती देने वाली पार्टी बने। और राज्य का चुनाव भाजपा और बसपा के बीच ही होता दिखे।  

भाजपा के बाद सबसे अधिक 22.7 प्रतिशत वोट बसपा को मिले थे

बसपा के टिकट पर दो चुनाव लड़ चुके महेंद्र पांडेय के अनुसार, बीते विधानसभा और लोकसभा के चुनाव परिणामों को देखे तो यह साबित होता है कि वोट हासिल करने के मामले में भाजपा के बाद बसपा का स्थान हो। बड़े लहरों के बीच में भी बसपा का वोट शेयर लगातार एकसा ही रहा है। वर्ष 2017 के चुनावों में भाजपा के बाद सबसे अधिक 22.7 प्रतिशत वोट बसपा को मिले थे। जबकि सपा को उस चुनाव में 21.8 प्रतिशत वोट मिले थे। इसी प्रकार वर्ष 2019 में हुए लोकसभा चुनावों में भी बसपा को 19.26 प्रतिशत वोट मिलने के साथ दस लोकसभा सीटों पर जीत हासिल हुई थी। जबकि इस चुनाव में सपा को 17.96 फीसदी वोट हासिल हुए और वह पांच सीटों पर ही जीत हासिल कर सकी थी। पुराने आंकड़ों को भी देखे तो वर्ष 2012 के असेंबली इलेक्शंस में बसपा का वोट शेयर 25 फीसदी से थोड़ा ऊपर रहा था। यह पार्टी को 2007 के चुनावों में मिले 30 फीसदी से वोटों से 5 फीसदी ज्यादा था।

हालांकि, पांच फीसदी का फर्क यह साबित नहीं कर पाया कि किस तरह से सपा को इतनी जबरदस्त जीत के साथ 224 सीटें मिलीं। बसपा को मिलने वाली सीटों की संख्या 126 घटकर 80 पर आ गई। 2009 के लोकसभा चुनावों में पार्टी को 27 फीसदी वोट और 20 सीटें मिली थीं। देखने वाली बात यह है कि वोट शेयर के संदर्भ में बसपा लगातार एक जैसा प्रदर्शन कर रही है। महेंद्र का मानना है सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ बनने वाले माहौल (एंटी-इनकंबेंसी फैक्टर) के साथ अखिलेश यादव का शिवपाल सिंह यादव के साथ चल रहा विवाद से मायावती की सोशल इंजीनियरिंग के पक्ष में ऐसी ही लहर आ सकती है जो बसपा को सत्ता के नजदीक पहुंचाने में सफल होगी। 

चुनावी मुद्दा बनाने का एक सीमित असर रहा 

महेंद्र पांडेय के इस दावे को यूपी राजनीति के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र भट्ट नकारते नहीं हैं। वह कहते हैं कि निश्चित तौर पर सपा के पारिवारिक विवाद का फायदा बसपा को मिलेगा। वर्तमान में अखिलेश यादव विभिन्न छोटे राजनीतिक दलों को अपने साथ जोड़ने की मुहिम में लगे हैं, लेकिन वह अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव से वादा करने के बाद भी उन्हें अपने साथ नहीं ले रहे हैं। अखिलेश के इस व्यवहार से शिवपाल सिंह यादव खासे नाराज हैं। वीरेंद्र कहते हैं कि अखिलेश अभी मजबूत नजर आ रहे हैं, लेकिन वह निश्चित तौर पर अपने पिता जैसे सामाजिक गठबंधन बनाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। जातियों की बेड़ियों में जकड़े समाज में विकास को चुनावी मुद्दा बनाने का एक सीमित असर रहा है। अखिलेश जो गठबंधन कर रहे हैं वह चुनावी कम जातीय अधिक है

गठजोड़ बसपा के लिए लाभप्रद साबित होगा

यूपी के विकास को लेकर योगी सरकार ने जो कार्य किया उसे जनता की सराहना मिल रही हैं। ऐसे हालात में सपा के लिए भाजपा से छिटके वोटों को अपने साथ जोड़ना बेहद मुश्किल है। कांग्रेस अभी भी सत्ता के लिए कड़ी उम्मीदवारी पेश कर पाने में नाकाम है। ऐसे में यूपी की जनता के लिए बसपा भी एक विकल्प है। बसपा मुखिया मायावती यूपी की सत्ता पर काबिज होने के लिए बेचैन हैं। सत्ता पर काबिज होने के लिए उन्होंने अकेले ही चुनाव लड़ने का फैसला किया है। इसे साथ ही वह ब्राह्मण समाज को जोड़ने में जुटी हैं और उन्होंने युवाओं को इन चुनावों में ज्यादा मौका देते हुए रिजर्व सीटों को जीते की अलग रणनीति तैयार की है। मायावती को भरोसा है को यूपी ब्राह्मण दलित और मुस्लिम समाज का गठजोड़ बसपा के लिए लाभप्रद साबित होगा। इस वोटबैंक के भरोसे ही मायावती पार्टी का साथ छोड़कर अन्य दलों में चले गए पार्टी विधायकों की परवाह किए बिना बड़े सलीके से अपने कई पैतरे चले हैं। जिसके चलते बसपा की चुनौती की अनदेखी अब नहीं की जा सकती। यहीं नहीं मायावती सपा को पछाड़ कर भाजपा से मुकाबला करते दिख सकती हैं क्योंकि उनका समर्थक मतदाता अभी भी उनके साथ है और इस वोटर के रहते मायावती को यूपी की राजनीति में अभी खारिज करना भूल ही होगी।