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    वर्धा. महाराष्ट्र के एससी, एसटी, वीजे, एनटी, एसबीसी व ओबीसी इन पिछड़ावर्गीय जनता के लिए राज्य सरकार ने 23/200 का जाति प्रमाणपत्र जांच कानून बनाया है. परंतु इस कानून के अंतर्गत 1950 के पूर्व के सबूत जुटाने में काफी परेशानी होती है, जिससे यह कानून रद्द करने की मांग आर्गनाइजेशन फॉर राइट्स आफ ह्यूमन (आफ्रोह) ने की है. 23/2000 के कानून पर अमल करने जिले में जाति प्रमाणपत्र जांच समिति स्थापित की गई है.

    विद्यार्थी, कर्मचारी, किसान व सर्वसामान्य जनता को शासन की योजनाओं का लाभ देने जाति का प्रमाणपत्र आवश्यक है. जाति का प्रमाणपत्र तहसीलदार, कार्यकारी दंडाधिकारी या जिलाधिकारी आवश्यक सबूत के आधार पर निर्गमित करते है. लेकिन कानून के तहत हर एक व्यक्ति को जाति प्रमाणपत्र की वैधता करना अनिवार्य है. 

    लोगों को हो रही मानसिक व आर्थिक परेशानी 

    एक सक्षम अधिकारी ने सभी सबूतों को देखकर निर्गमित किए जाति प्रमाणपत्र की वैधता दूसरी यंत्रणा द्वारा करने की जरूरत क्या. वैधता जांचने वर्षों पुराने सबूत मांगे जाते है. 1950 पूर्व के सबुत प्रस्तुत नहीं कर सके तो व्यक्ति उस जाति का नहीं है क्या. जाति वैधता मिलने के लिए लोगों को मानसिक व आर्थिक परेशानी हो रही है. 

    जाति विषयक कानून बनाने का अधिकार राज्य को नहीं 

    जाति विषयक कानून बनाने का अधिकार राज्य शासन को नहीं. यह अधिकार केवल संसद को है. पूर्व आदिवासी मंत्री मधुकर पिचड़ व कुछ आदिवासी विधायकों के दबाव में 23/2000 का असंवैधानिक कानून खुद के स्वार्थ व 33 अन्यायग्रस्त जनजाति को अधिकार से वंचित रखने पारित किया गया, जिससे अब पिछड़ावर्गीयों को परेशानी हो रही है. इस ओर गंभीरता से ध्यान देकर यह कानून रद्द करने की मांग आफ्रोह संगठन के राज्याध्यक्ष शिवानंद सहारकर, कार्याध्यक्ष राजेश सोनपरोते, महासचिव रूपेश पाल, गजेंद्र पौनीकर ने की है.