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    नयी दिल्ली. पश्चिम बंगाल में जहाँ इस बार विधान सभा चुनाव की तपिश सर चढ़ कर बोल रही है। वहीं अब इस बार के चुनाव में ममता बनर्जी (Mamta Bannerjee) की TMC और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) की बीजेपी (BJP) दोनों ही पार्टीयों के बीच इस बार असल चुनावी जंग है। गौरतलब है कि जहाँ CM ममता बनर्जी की तृणमूल एक प्रादेशिक पार्टी ही है, लेकिन फिर भी कहीं न कहीं यह बीजेपी जैसे देश स्तर राजनीतिक पार्टी के सामने अपना सीना ठोक कर खड़ी है। अब सवाल पश्चिम बंगाल के जनसमुदाय का है। तो जानब! जहाँ प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी यहाँ एक हिंदी भाषी (Hindi Spoken People) स्थानीय निवासियों के बीच एक अच्छी-खासी पैठ रखती हैं। तो वहीँ दूसरी तरफ बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस TMC दोनों ही अब यहाँ के मतुआ समाज (Matua Samaj) को अपने पक्ष में लेने के लिए आतुर है।

    राज्य में हिंदी भाषियों का वर्चस्व:

    गौरतलब है कि बंगाल की आबादी करीब 11 करोड़ के आसपास है और इसमें सवा करोड़ से ज्यादा हिंदी भाषी हैं। जिनमें से करीब 72 लाख वोटर हैं। बंगाल की हो रही चुनावी रस्साकशी में अब हर पार्टी हिंदी भाषियों को अपनी तरफ खींचने की बरसक प्रयत्न कर रही है। जहाँ CM ममता बनर्जी ने जनवरी में हिंदी भाषियों को अपने दफ्तर में बुलाया था और उनसे तृणमूल को समर्थन देने की अपील भी की थी। वहीं CM ममता पूर्वी भारत की पहली हिंदी यूनिवर्सिटी शुरू करने का काम भी कर चुकी हैं, हालांकि यह यूनिवर्सिटी अभी तक शुरू भी नहीं हुई है।

    राज्य में 15% नॉन बंगाली जनता जिसमे बड़े उद्योगपति भी: 

    हालाँकि बंगाल की कुल पॉपुलेशन में करीब 15% नॉन बंगाली भी हैं। इन नॉन बंगालियों में सबसे ज्यादा हिंदी भाषी ही हैं। अब यहाँ पर हिंदी भाषियों का प्रभाव इसी से पता चलता है कि कोलकाता के आज ज्यादातर बड़े उद्योगपति नॉन बंगाली ही हैं। ये राजस्थान-बिहार जैसे राज्यों से यहां आकर बसे हैं। वहीं कोलकाता का ‘बड़ा बाजार’ का पूरा कंट्रोल इन्हीं उद्योगपतियों के हाथ में रहता है। लेकिन 2014 में केंद्र में BJP की सरकार आने के बाद पार्टी ने तबसे पश्चिम बंगाल के हिंदी भाषियों में पैठ बनानी शुरू की। बता दें कि 2019 में लोकसभा में भाजपा को मिली सफलता में हिंदी भाषी वोटों का अहम योगदान माना जाता है।

    CM ममता ने खोले 600 हिंदी मीडियम स्कूल:

    जहाँ TMC का दावा है कि पिछले दस सालों में CM ममता दीदी ने राज्य में 600 हिंदी मीडियम के स्कूल दिए। 7 कॉलेज दिए, जो अपने आप में अब भी एक रिकॉर्ड है। वहीं राज्य में हिंदी प्रकोष्ठ की स्थापना भी इसलिए की गई है, ताकि हिंदी भाषियों की दिक्कतों को दूर किया जा सके। हालांकि, इसके उलट BJP का आरोप है कि TMC यहाँ बंगाली और नॉन बंगाली के बीच लड़ाई करवाना चाहती है, जबकि BJP मानती है कि बंगाल में रहने वाला हर व्यक्ति ही बंगाली है।

    बंगाल की राजनीति और मतुआ समाज:

    दूसरी तरफ बात आती है मतुआ समाज की जहाँ बीजेपी ने पश्चिम बंगाल के ‘मतुआ समुदाय’ (Matua community)को अपने साथ एकजुट रखने के लिए अपने सारे अहम् सियासी घोड़े छोड़ रखे हैं, वहीं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नागरिकता संशोधन कानून (CAA) का विरोध करना नहीं छोड़ा है। यह बात भी ख़ास है कि बीजेपी पर इस समुदाय के नेता इसी कानून को जल्द लागू करने का अपना दबाव भी बनाए हुए हैं।

    CM ममता ने खेला जमीन और पहचान का पैंतरा:

    लेकिन, बीते सोमवार को रानाघाट में मुख्यमंत्री ममता ने यह कहकर कि इस CAA कानून के लागू होते ही मतुआ समुदाय अपनी ‘जमीन और पहचान दोनों खो देंगे’, से उनके मन में उस कानून को लेकर एक अजीब सी आशंका पैदा करने की कोशिश की है, जिसकी वो पिछले कई दशकों से मांग कर रहे हैं। यहाँ बता दें कि मतुआ वोट बैंक बीजेपी और तृणमूल दोनों के ही लिए बहुत ही अहम है। इन दोनों की उस पर पैनी नजरें भी हैं। हालाँकि पिछले लोकसभा चुनाव में यह समुदाय बीजेपी के पाले में जरुर झुका तो था, लेकिन इस बार CM ममता इनके मन में CAA को लेकर आशंका के बीज बोकर एक नया राजनीतिक पैंतरा खेलने की कोशिश कर रही हैं।

    बीजेपी और ममता दोनों लगे मतुआ समाज को साधने में:

    इसी के चलते अब अमित शाह भी मतुआ समुदाय के नेताओं से मेल-जोल और बढ़ा रहे हैं और CAA को लेकर उनके सवालों और दुविधाओं को दूर कर रहे हैं। इसके लिए बीजेपी भी मतुआ समुदाय को अपने साथ बनाए रखने के लिए काफी पापड़ बेल रही है। जिसके चलते अमित शाह मतुआ परिवारों के घर जाकर भोजन कर चुके हैं और पार्टी भी इस समाज से CAA लागू करने को लेकर धैर्य रखने को कह रही है। इधर तृणमूल और ममता की परेशानी ये है कि वो ना तो CAA के लिए हामी भर पा रहे हैं और ना ही मतुआ वोट बैंक को ही यूं ही बीजेपी के पल्ले में जाते देख पा रहे हैं। लिहाजा ममता अब मतुआ समुदाय को बीजेपी के राज्य में सरकार बनाने से उनके जमीन और पहचान खोने के डर का नया पैंतरा खेला है। 

    क्या है बंगाल में मतुआ समाज की अहमियत:

    अगर बंगाल की सियासी लड़ाई में मतुआ समाज की अहमियत को अच्छे से आपको समझनी हो तो ऐसे समझिए कि पिछले 2016 के  लोकसभा चुनाव में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने बनगांव (Bongao) सीट के ठाकुरनगर से ही प्रचार अभियान की शुरुआत की थी। तब उन्होंने इसके पहले तब 100 वर्षीय बीनापानी देवी से मिलकर उनका आशीर्वाद भी लिया था, जिन्हें मतुआ समाज के लोग प्यार से ‘बोरो मां’ कहकर बुलाते थे। वह इस समाज की कुलमाता थीं। इस प्रकार से देखा जाये तो मतुआ समाज इस बार के विधान सभा चुनाव में सत्ता की चाबी एक तरह से अपने पास रखे हुए हैं।

    कौन है मतुआ समाज:

    गौरतलब है कि मतुआ पूर्वी बंगाल (या पूर्वी पाकिस्तान) या बांग्लादेश से आए हुए हिंदू शरणार्थी हैं। एक बात और है कि मतुआ समाज नामासुद्रा ( Namasudras ) के तौर पर भी जाने जाते हैं, जो कि एक अनुसूचित जाति है। अब बंगाल की अनुसूचित जातियों में इनकी आबादी करीब 17।4% है, जो कि राज्य की दूसरी सबसे बड़ी अनुसूचित जाति जनसंख्या है। वैसे तो इस समुदाय के लोगों का दावा है कि उनकी जनसंख्या करीब 3 करोड़ है। वहीं सरकारी आंकड़ों के अनुसार राज्य में अनुसूचित जाति की कुल जनसंख्या 1।8 करोड़ है। लेकिन, इससे इतना तो इतना तय है कि कम से कम 6 संसदीय क्षेत्रों में ये अच्छी-खासी तादाद में हैं। वैसे मतुआ समुदाय मूल रूप से उत्तर और दक्षिण 24 परगना में बसा हुआ है, लेकिन नदिया, हावड़ा, कूचबेहार, उत्तर और दक्षिण दिनाजपुर और मालदा में भी इनकी काफी जनसंख्या मौजूद है।

    क्या मतुआ और हिंदी भाषियों के पास सत्ता की चाबी!

    इस प्रकार से देखा जाए तो पश्चिम बंगाल के विधासभा चुनाव में इस बार सत्ता की चाभी, राज्य के हिंदी भाषी स्थानीय निवासियों और यहाँ के सबसे बड़े अनुसूचित जाति मतुआ समाज के हाथों में है। जहाँ बीजेपी की राज्य के इन्ही हिंदी भाषियों के बीच बीते कुछ सालों अच्छी पैठ बनी है,वहीं मतुआ समाज को भी वह CAA कानून के तहत अपने साथ मिलाने को देख रही है। शायद यह उनका इस बार का पश्चिम बंगाल के चुनाव को जीतना का समीकरण हो। लेकिन अपनी तृणमूल कांग्रेस के साथ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी किसी भी प्रकार से कम नहीं पड़ती दिख रही हैं। फिर चाहे उनका राज्य के हिंदी भाषियों से नाते का हो या फिर मतुआ समाज के साथ उनके समीकरण का। 

    क्या कहता है ओपिनियन पोल:

    वैस भी निजी मीडिया चैनल एबीपी न्यूज और सी-वोटर ओपिनियन पोल का यह दावा है कि TMC को इस बार 148-164 सीटें मिल सकती हैं तो वहीं 200 पार का नारा लगाने वाली बीजेपी को मात्र 92 से 108 सीटों से ही इस बार संतोष करना पड़ सकता है। वहीं सर्वे के हिसाब से देखा जाये तो कांग्रेस और लेफ्ट गठबंधन के खाते में 31-39 सीटें ही जा सकती हैं। इस प्रकार पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों की डगर बहुत ही फिसलन भरी है। देखना यह है कि बीजेपी या तृणमूल कौन इस बार सत्ता में काबिज होता है।