Samajwadi Party, Samajwadi Party Political Graph
मुलायम सिंह यादव-अखिलेश यादव (डिजाइन फोटो)

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लखनऊ : कुश्ती के अखाड़े के साथ-साथ राजनीतिक मैदान में भी अपनी चाल के लिए माहिर समझे जाने वाले मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) ने अपने कार्य-कुशलता और राजनीतिक पकड़ के दम पर समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) को शून्य से लेकर सत्ता के चरमोत्कर्ष तक पहुंचाया, लेकिन उनके उत्तराधिकारी अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) मुलायम सिंह यादव के करिश्मा को दोहरा पाने में असमर्थ दिखाई देते हैं। मौजूदा समय में बदले राजनीतिक हालात में अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव द्वारा बनाए गए जीत के रिकॉर्ड को छूने में असफल दिखाई दे रहे हैं। इतना नहीं नहीं अब तो उन्हें पार्टी के सांसदों की संख्या भी बढ़ाने में भी कामयाबी नहीं मिल पा रही है। 

राजनीतिक गलियारों में कहा जाता है कि मुलायम सिंह ने अपने राजनीतिक कुशलता के जरिए साइकिल का पैडल मारते हुए पार्टी को सत्ता के शिखर तक पहुंचाया और कई बार उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने की सफल कोशिश की। इतना ही नहीं 2012 के चुनाव में बहुमत हासिल करके अपनी कुर्सी अपने उत्तराधिकारी और बेटे अखिलेश यादव को सौंप दी। लेकिन अखिलेश यादव के नेतृत्व में पार्टी वह करिश्मा नहीं दिखा पा रही हैं, जिसके लिए कभी मुलायम सिंह यादव जाने जाते थे।

आपको याद होगा कि 1992 में पार्टी के गठन के बाद शुरुआत के चार लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी का ग्राफ हमेशा ऊपर की ओर बढ़ता रहा, लेकिन उसके बाद पार्टी बैक गियर में नीचे की ओर खिसकने लगी। इसके बाद चुनाव दर चुनाव उसका वोट प्रतिशत भी गिरता गया। ऐसी स्थिति में सीटें भी कम होती गयीं। इतना ही नहीं इस दौरान समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य प्रदेशों में भी लोकसभा का चुनाव लड़कर किस्मत आजमाने की कोशिश की, लेकिन अन्य किसी राज्य में कभी भी साइकिल दौड़ नहीं पायी। इक्का दुक्का जगह पर ही सीटें मिलीं। 

पार्टी गठन के बाद सबसे पहले 1996 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने 16 सीटें जीतकर 20.84% वोट हासिल किए थे। इतना ही नहीं समाजवादी पार्टी ने बिहार में भी एक सीट जीतने में सफलता हासिल की थी। इसके बाद 1998 में हुए चुनाव में उसे 28.7% वोट प्राप्त हुए और उसकी सीटों की संख्या भी बढ़कर 20 हो गई। इसके बाद जब 1999 में एक बार फिर लोकसभा के चुनाव हुए तो समाजवादी पार्टी ने 13 राज्यों की 151 सीटों पर चुनाव लड़कर अपने पार्टी को विस्तार करने की कोशिश की, लेकिन उसे उत्तर प्रदेश से ही सिर्फ 26 सीटें मिलीं। अन्य किसी भी प्रदेश में उसका खाता नहीं खुला, लेकिन पूरे देश में समाजवादी पार्टी को 3.76 फ़ीसदी वोट मिले। 

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2004 में टॉप पर थी सपा

अगर 2004 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो वह समाजवादी पार्टी के लिए सबसे बेहतरीन दौर कहा जाता है। उस समय पार्टी को 26.74% वोट मिले और लोकसभा में कुल 35 सीटें जीतने में सफलता पाई। वहीं 2009 के चुनाव में समाजवादी पार्टी के सीटों की संख्या घटनी शुरू हो गयीं। 2009 में समाजवादी पार्टी ने 75 सीटों पर चुनाव लड़ा पर उसे मात्र 23.25% वोट मिले और इस दौरान समाजवादी पार्टी केवल 23 सीटों पर ही चुनाव जीत सकी।

अखिलेश नहीं भर पाए लोगों में जोश

इसके बाद 2014 का लोकसभा चुनाव हुआ तो पार्टी की कमान अखिलेश यादव के हाथ में थी और इस चुनाव से ही समाजवादी पार्टी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती हुई दिखाई देने लगी। 2014 में समाजवादी पार्टी ने 78 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा, जिसमें उसे सिर्फ 22.35 रिपोर्ट मिले और समाजवादी पार्टी केवल पांच लोकसभा सीटें ही जीत पायी। सपा का यह लोकसभा चुनावों में सबसे खराह प्रदर्शन कहा गया। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन करके समाजवादी पार्टी ने अपने जनाधार को बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन इस दौरान पार्टी का वोट भी घट गया तथा सीटों की संख्या में भी कोई इजाफा नहीं हुआ। 2019 के लोकसभा चुनाव में 37 सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद समाजवादी पार्टी केवल 5 सीटें ही जीत पायी। इस दौरान सपा को सिर्फ 18.11 फ़ीसदी वोट मिले। 

इसके बाद 2022 के विधानसभा चुनाव के दौरान समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश में 32.5 फीसदी वोट मिले हैं। इसकी वजह से सपा के मुखिया अखिलेश यादव उत्साहित हैं, हालांकि इस दौरान केवल 101 सीटों पर ही विधायकों को जीत दिला सकी। लेकिन समाजवादी पार्टी को लंगने लगा है कि उसके पक्ष में लोगों का रुझान है। अगर एक बार फिर से गठबंधन और अन्य दलों का सहारा लेकर चुनाव मैदान में उतरा जाए तो लोकसभा की सीटों में इजाफा हो सकता है। साथ ही पार्टी के खोए हुए आत्मविश्वास को एक बार फिर से वापस लाने की कोशिश की जा सकती है।

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अखिलेश यादव (डिजाइन फोटो)

ये है सपा की मूल समस्या

एक पूर्व विधायक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि हम लोगों को अखिलेश यादव से मिलने के लिए लाइन लगानी पड़ती है। उनके आसपास के लोग जिले में संघर्ष करने वाले नेताओं को अखिलेश यादव से मिलने ही नहीं देते हैं। मुलायम सिंह करीबी समझे जाने वाले लोग हासिए पर जा रहे हैं। जबकि दरबार लगाने वाले नेताओं को वह जरूरत से ज्यादा महत्व दे रहे हैं। पार्टी के लोगों में इसीलिए निराशा का माहौल है। 

अखिलेश को बदलना होगा

राजनीतिक विश्लेषण का मानना है कि अखिलेश यादव का बड़बोलापन और पार्टी के कार्यकर्ताओं पर कमजोर पकड़ उनके गिरते हुए ग्राफ का महत्वपूर्ण कारण है। अगर अखिलेश यादव पार्टी के कार्यकर्ताओं और वरिष्ठ नेताओं से वार्तालाप करना शुरू कर दें तो समाजवादी पार्टी का कायाकल्प हो सकता है, लेकिन अखिलेश यादव पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और मुलायम सिंह के समय में पार्टी के लिए खून पसीना बहाने वाले नेताओं को दरकिनार करते रहे हैं। इसी वजह से पुराने कार्यकर्ताओं का समाजवादी पार्टी से धीरे-धीरे मोह भंग होने लगा है। गठबंधन की राजनीति में सीटों से समझौते के दौरान अगर पार्टी पुराने कार्यकर्ताओं और नेताओं से बातचीत करके उन्हें विश्वास में लेने की कोशिश करें तो समाजवादी पार्टी फिर से नए सिरे से उभर सकती है, लेकिन इसके लिए अखिलेश यादव को सर्व सुलभ होना पड़ेगा। 

अब अखिलेश यादव इंडिया गठबंधन के सहारे एक बार फिर से चुनावी मैदान में हैं और उन्हें लग रहा है कि कांग्रेस पार्टी के साथ लोकसभा चुनाव में गठबंधन करके उनकी सीटें व वोट प्रतिशत बढ़ सकता है।