After 'words' banned, now Parliament House can't be used for dharnas, strikes

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    आखिर सरकार चाहती क्या है? संसदीय लोकतंत्र में बहस की विशिष्ट भूमिका है. विपक्ष भी जनता का प्रतिनिधित्व करता है. सरकार की गलत नीतियों और कदमों की आलोचना करने और उसे आईना दिखाने का विपक्ष को पूरा हक है. विपक्ष अपने दबाव से सरकार को स्वेच्छाधारी बनने से रोकता है. संतुलन एवं नियंत्रण के सिद्धांत के अनुसार संसद में सशक्त विपक्ष की उपस्थिति जरूरी है. क्या मोदी सरकार की मंशा विपक्ष को पूरी तरह खामोश और नि्क्रिरय कर देने की है? ऐसा करना सर्वथा अलोकतांत्रिक होगा. संसद में असंसदीय शब्दों की पुस्तिका को लेकर विवाद चल ही रहा था कि राज्यसभा सचिवालय ने एक नया आदेश पत्र जारी कर दिया जिसके मुताबिक संसद भवन परिसर में कोई भी सदस्य धरना, हड़ताल, उपवास या किसी तरह का धार्मिक आयोजन नहीं कर सकता. अबतक किसी सदस्य या दल को लगता था कि उसकी बात सदन के भीतर नहीं सुनी जा रही है तो ऐसी स्थिति में वह सदस्य या संबंधित राजनीतिक दल संसद परिसर में स्थित गांधी प्रतिमा के सामने अपना विरोध दर्ज कराते रहे हैं. यह आदेशपत्र इस पर भी रोक लगा देगा. एक तरह से सरकार विपक्ष के मुंह पर पट्टी बांध रही है ताकि वह किसी भी ज्वलंत मुद्दे पर संसद में सरकार की आलोचना या विरोध न करने पाए. ऐसा कदम विश्व के सबसे बड़े हमारे लोकतंत्र को क्षति पहुंचानेवाला है.

    सदस्य कैसे कर पाएंगे आलोचना

    विपक्षी सदस्यों के लिए समस्या होगी कि वे सरकार को किसी मुद्दे पर कैसे आड़े हाथ लें. इतने अधिक शब्दों को असंसदीय करार दे दिया गया है कि आलोचना या अभिव्यक्ति में तीखापन आ ही नहीं सकता. विपक्ष की बहस को कुंद या धारहीन बनाने के लिए यह बंधन है. पाखंड, नौटंकी, ढिंढोरा पीटना, बहरी सरकार, दोहरा चरित्र, निकम्मा, अहंकार, गिरगिट, घड़ियाली आंसू, कायर, अपराधी, खरीद-फरोख्त, शकुनि, जयचंद, तानाशाह, विनाश पुरुष, खून से खेती, जुमलाजीवी जैसे कितने ही शब्द असंसदीय घोषित कर दिए गए हैं. हर शब्द का अर्थ उसके आगे-पीछे के संदर्भ से जुड़ा होता है. कई शब्दों के एक नहीं, अनेक अर्थ होते हैं. रोज बोलचाल में प्रयुक्त होनेवाले शब्दों को आपत्तिजनक की श्रेणी में डाल देना कहां तक सही है? लोकसभा अध्यक्ष ने जिन शब्दों को असंसदीय माना है, उनका इस्तेमाल समाचारपत्रों, लेखों तथा टीवी चैनल की बहस में होता रहता है. कुछ मुहावरे और कहावतें भाषा में जान डाल देते हैं.

    क्या विपक्ष सरकार का गुणगान करता रहे?

    असंसदीय शब्दों के इस्तेमाल पर मनाही और संसद में धरने पर रोक से यही संकेत मिलता है कि सरकार को विपक्ष के हमले के खिलाफ कवच प्रदान किया गया है. क्या विपक्ष सरकार की गलतियां निकालने और आगाह करने की बजाय उसकी जयजयकार और अभिनंदन करे? क्या विपक्ष से यह उम्मीद है कि वह हर कदम पर सरकार की सराहना करे और तारीफों के पुल बांधे? ऐसा तो कहीं भी नहीं होता. यदि विपक्ष सरकार की चाटुकारिता करने लग जाए तो उसे विपक्ष कदापि नहीं कहा जा सकता? सरकार के किसी अच्छे कदम पर भूलेभटके विपक्ष सहमत हो सकता है अन्यथा विपक्ष की भूमिका लोकतंत्र के सजग प्रहरी की होती है जो सरकार को मनमानी करने में रोकता-टोकता है. सरकार के कितने ही नेता ऐसे संगठन से संबंध रखते हैं जहां असहमति के लिए कोई स्थान नहीं है. शीर्ष स्तर पर जो फैसला ले लिया गया, उसे स्वीकार करने के लिए हर कोई बाध्य होता है. ऐसी व्यवस्था से निकले नेता संसद में भी कोई विरोध नहीं चाहते. वे अपने निर्णयों पर आम सहमति लादना चाहते हैं. इसलिए न तो धरना-प्रदर्शन हो, न ही असंसदीय कहे जानेवाले शब्दों का प्रयोग. विपक्ष को महत्वहीन बनाने की मंशा इसके पीछे है.