पुलिसवालों को मिलता है इनाम, ‘एनकाउंटर’ असली होता है या फर्जी

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उत्तर प्रदेश में होने वाले एनकाउंटर संदेह के घेरे में रहे हैं. अवश्य ही इसके पीछे राजनीतिक प्रोत्साहन रहा है वरना पुलिसकर्मी इतनी तथाकथित मुठभेड़ों को अंजाम नहीं देते. जब योगी सरकार सत्ता में आई तो पुलिसवालों से कहा गया कि उनके पास जो हथियार हैं, वे सिर्फ दिखाने के लिए नहीं हैं, उनका इस्तेमाल भी होना चाहिए. इसके बाद धड़ल्ले से इन शस्त्रों का प्रयोग होने लगा. मुठभेड़ों का इतिहास पुराना रहा है. जब चंबल घाटी में डाकुओं का उत्पात था तब पुलिस से उनकी झड़प होती थी.

ऐसे ही एनकाउंटर में दस्यु सरदार मानसिंह, रूपा, पानसिंह तोमर (पाना), अमृतलाल जैसे डाकू मारे गए, जब पुलिस का दबाव बढ़ा तो माधो सिंह, मोहर सिंह, तहसीलदार सिंह जैसे डाकू जिन्हें ‘बागी’ कहा जाता है, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सामने आत्मसमर्पण करने के लिए आगे आए. उस समय के और अभी के एनकाउंटर में काफी फर्क है. इसके तौर-तरीके और उद्देश्य भिन्न हैं. कुछ खतरनाक किस्म के दबंग और बदमाश कानून व्यवस्था के लिए खतरा बन जाते हैं. उन्हें गिरफ्तार करने पर भी कोई उनके खिलाफ गवाही देने सामने नहीं आता. सबूत न मिल पाने से वे जमानत पर छूट जाते हैं और अपनी हरकतों से बाज नहीं आते.

दबंगों को नेताओं का संरक्षण

दबंगों को किसी खास दल या उसके नेताओं का संरक्षण भी प्राप्त रहता है. चुनाव के समय वोट जुटाने के लिए उनका इस्तेमाल किया जाता है. ददुआ डाकू को ऐसे ही इस्तेमाल कर बाद में मरवा दिया गया. पुलिस भी उन पर कार्रवाई करने में हिचकती है.  यूपी सरकार ने पुलिस को क्लीन चिट दी थी…

जश्न मनाते हैं पुलिस अधिकारी

एनकाउंटर में हत्याओं पर राज्य के पुलिस अधिकारी जश्न मनाते हैं. इतना ही नहीं, उन्हें आगे बढ़कर पुरस्कार व प्रमोशन भी दिए जाते हैं. यूपी सरकार ने इस मुद्दे पर हलफनामा दाखिल कर कहा था कि पुलिस ने रक्षात्मक कार्रवाई के तहत एनकाउंटर किए थे. फिर भी सवाल उठता है कि पुलिस कमर के नीचे पैर पर गोली क्यों नहीं मारती? बात यही है कि यदि अपराधी जिंदा बचा तो उसके खिलाफ सबूत और गवाह जुटाकर सजा दिलवाना बेहद कठिन होगा, इसलिए पुलिस ही उसे एनकाउंटर रूपी सजा-ए-मौत दे है. यह सब गैरकानूनी है लेकिन फिर भी हो रहा है. सवाल है कि ऐसी एक्स्ट्रा ज्युडीशियल किलिंग को क्यों चलने दिया जा रहा है? पुलिस अपराधी को पकड़ने का अधिकार रखती है, उसकी हत्या का नहीं। सरकार यदि इसे प्रोत्साहित करती

दबंगों की तूती बोलती थी, उन्हें ठिकाने लगाने के लिए योगी आदित्यनाथ की सरकार ने कमर कस ली. कानपुर के समीप बिकरू गांव के माफिया विकास दुबे को यूपी पुलिस मध्यप्रदेश से हिरासत में लेकर कानपुर ला रही थी. रास्ते में तेज बारिश हुई, पुलिस की गाड़ी पलट गई जिसमें से निकलकर विकास दुबे भागने लगा और फिर वहां हुए एनकाउंटर में मारा गया. पूर्व सांसद अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ को भी जब पुलिस पैदल कोर्ट की ओर ला रही थी, तभी कुछ लोगों ने गोलियां दागकर इन दोनों को खत्म कर दिया. पुलिस कुछ नहीं कर पाई. एनकाउंटर के इस चलन के खिलाफ विशाल तिवारी नामक व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की और यूपी सरकार की उस स्टेटस रिपोर्ट पर सवाल उठाया जिसमें कहा गया था कि अतीक अहमद और अशरफ की हत्या में पुलिस की कोई गलती नहीं थी. अन्य एनकाउंटरों है तो कानून का शासन कहां रह गया ?