खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे: कांग्रेस पहले फिक्र करती तो सड़क पर नहीं होती

Loading

कांग्रेस की हालत ‘खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे’ जैसी हो गई है. वह बात-बात पर अपनी खीज निकाल रही है. केंद्र की सत्ता से दूर हो जाने की कसक उसके नेताओं के बयानों में झलकती है. यदि कांग्रेस पहले फिक्र करती तो आज सड़क पर नहीं होती. आजादी के बाद से कितने ही दशकों तक सत्ता सुख भोगने वाली इस पार्टी ने कल्पना ही नहीं की थी कि कभी उसकी हालत इतनी पतली हो जाएगी कि लोकसभा में अधिकृत विपक्ष का दर्जा पाने लायक सदस्य संख्या भी उसके पास नहीं बचेगी.

अदूरदर्शी नीतियां, अति आत्मविश्वास और विपक्ष को हिकारत से देखने का उसका नजरिया उसे ले डूबा. एक समय वह भी था जब देश पर एकछत्र कांग्रेस का राज था. केंद्र और राज्यों में उसकी तूती बोलती थी. तब गांधी-नेहरू का नाम खूब भुनाया जाता था किंतु समय कभी एक सा नहीं रहता. कांग्रेस (Congress) देश के गिने-चुने राज्यों तक सीमित होकर रह गई है. जिन विपक्षी व क्षेत्रीय पार्टियों को कांग्रेस अपने सामने बहुत कम आंकती थी, आज वे ताकतवर हो उठी हैं. केंद्र से लेकर राज्यों तक यही स्थिति है. जो पार्टी जनता से दूर चली जाती है, उसका यही हाल होता है. कांग्रेस ने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होगी कि 1984 के लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections) में जो बीजेपी (BJP) सिर्फ 2 सीटों पर सिमटकर रह गई थी, वह कभी केंद्र की सत्ता में प्रचंड बहुमत से आ जाएगी. मोदी के अभ्युदय ने कांग्रेस की सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया. इसीलिए उसके नेताओं के बयानों में हताशा झलकती है.

उद्योगपतियों से दोस्ती का ताना

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने कहा कि मोदी सरकार कुछ चुनिंदा उद्योगपतियों के लिए काम कर रही है. प्रधानमंत्री वही करते हैं जो ये तीन-चार लोग कहते हैं. आने वाले समय में खेती-किसानी पूरी तरह से खत्म हो जाएगी और इस पर बड़े उद्योगपतियों का कब्जा हो जाएगा. राहुल को पता होना चाहिए कि उद्योगपति तो कांग्रेस को भी चंदे की मोटी रकम देते रहे हैं. क्या नेहरू व इंदिरा के शासन में बिड़ला घराने की कांग्रेस से निकटता नहीं थी? बिड़ला के हिंदुस्तान मोटर्स प्रा. लि. की एम्बेसडर कार सरकार के हर विभाग के लिए खरीदी गई थी. तब टाटा की तुलना में बिड़ला उद्योग समूह को ज्यादा सरकारी रियायतें मिला करती थीं. उद्योगपति किसी एक नहीं, बल्कि सभी पार्टियों को चुनावी चंदा देते हैं लेकिन चंदे का अनुपात अलग-अलग होता है. नेहरू सरकार के समय ही उद्योगपति रामकृष्ण डालमिया को अवांछित लाभ पहुंचाने के चक्कर में वित्त मंत्री पद से टीटी कृष्णमाचारी को इस्तीफा देना पड़ा था.

कैडर पर कभी ध्यान नहीं दिया

कांग्रेस ने कभी अपने कैडर पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया. एनएस हार्डीकर द्वारा गठित  ‘सेवादल’ को कांग्रेस ने कभी मजबूती प्रदान नहीं की. कांग्रेस अधिवेशनों की तैयारी में सेवादल कार्यकर्ता निष्ठापूर्वक जुटे रहते थे लेकिन उन्हें आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया गया. इसके विपरीत पूर्ववर्ती जनसंघ और अब बीजेपी का पितृ संगठन आरएसएस हमेशा संगठित और ताकतवर रहा. यह विश्व का सबसे बड़ा स्वैच्छिक संगठन है. आरएसएस के अनेकों उपक्रमों में से एक बीजेपी है. जिन स्वयंसेवकों की राजनीति में रुचि रहती है, वे संघ के विचारों से अनुकूलता रखने वाली बीजेपी में चले जाते हैं. बीजेपी में ऐसे नेता ज्यादा टिक नहीं पाते जिनका आरएसएस का बैकग्राउंड नहीं है. कांग्रेस कार्यकर्ताओं का कोई संगठित अनुशासित ढांचा नहीं रहा.

धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता

कांग्रेस ने लंबे समय तक पहले जनसंघ और फिर बीजेपी पर सांप्रदायिक व फासिस्ट पार्टी होने का आरोप लगाया. रणनीति में दशकों तक धर्म और हिंदुत्व की बात करने वाली बीजेपी को अछूत के समान रखा गया. कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता या सेक्यूलरिज्म का झंडा बुलंद करती रही. धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सभी धर्मों के प्रति समान भाव रहना चाहिए परंतु कांग्रेस ने इसे हिंदुओं की उपेक्षा व मुस्लिम तुष्टिकरण के रूप में लिया. कांग्रेस, कम्युनिस्ट, सपा, बसपा जैसी पार्टियों का यही रवैया रहा कि बीजेपी को सांप्रदायिक पार्टी करार देते रहो. 2014 के आम चुनाव में जब मोदी के नेतृत्व में बीजेपी जीती और फिर 2019 में उसने और भी ज्यादा बहुमत हासिल कर लिया तो कांग्रेस सहित यूपीए की पार्टियां हतप्रभ रह गईं.

मोदी पर वार बेमतलब

राहुल गांधी का यह कथन बेतुका है कि अगर आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत भी किसान कानूनों का विरोध करेंगे तो प्रधानमंत्री उन्हें भी आतंकवादी कह सकते हैं. यह व्यर्थ की कपोल कल्पना है. बीजेपी का बड़े से बड़ा नेता भी कभी संघ के अनुशासन के बाहर नहीं जाता. बीजेपी के लिए संघ अनिवार्य है, संघ के लिए बीजेपी नहीं! संघ के संकेतों पर पहले जनसंघ बना, फिर उसके सहयोग से जनता पार्टी बनी. जब जनता पार्टी में राजनारायण और मधु लिमये ने दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठाया तो अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने संघ के प्रति अपनी अटूट निष्ठा जताते हुए जनता पार्टी छोड़ दी और 1980 में बीजेपी बना ली थी. आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेता ने जब खुद को सेक्यूलर दिखाने की धुन में कराची जाकर जिन्ना की तारीफ की तो संघ ने उनका कद इतना घटा दिया कि पार्टी में कोई पूछनेवाला ही न रहा. ऐसा है संघ का पावर! इसलिए यह कल्पना ही नहीं की जा सकती कि अपनी लोकप्रियता के बावजूद मोदी कभी उस संघ के खिलाफ जाएंगे जिसके वे लंबे समय तक प्रचारक थे. बीजेपी का बड़े से बड़ा नेता भी संघ के सामने दंडवत रहता है.