Nagpur Vidhan Bhavan

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    नागपुर. नागपुर करार के रूप में 28 सितंबर 1953 को हुए समझौते के अनुसार राज्य विधानमंडल के होने वाले 3 सत्रों में से एक सत्र उपराजधानी में कराने का निर्णय हुआ, किंतु इसका केवल नाममात्र के लिए ही पालन होता रहा है. 6 सप्ताह के लिए सत्र लेने पर मुहर लगने के बावजूद सत्ता में रहे किसी भी राजनीतिक दल ने इसका कभी पालन नहीं किया. यही कारण है कि विदर्भ के साथ हुए अन्याय को लेकर स्थानीय कार्यकर्ताओं की हमेशा ही आवाज बुलंद रही. लंबे समय बाद विधानसभा के अध्यक्ष के रूप में नाना पटोले की नियुक्ति होने के बाद विधानभवन में मिनी मंत्रालय शुरू किया गया था जिससे विदर्भ के 11 जिलों के लोगों को न्याय मिलने की आशा जताई जा रही थी. लेकिन अब यह राजनीति का शिकार हो गया है जिससे विदर्भ के साथ फिर अन्याय होने के आरोप लगाए जा रहे हैं.

    स्थायी तौर पर शुरू होना था सचिवालय

    सूत्रों के अनुसार तत्कालीन सरकार ने भी हैदराबाद हाउस में इसी तरह का सचिवालय शुरू करने का प्रयास किया था किंतु इसमें निरंतरता नहीं होने से लोगों को न्याय नहीं मिल पाया. महाविकास आघाड़ी ने विधानभवन में ही स्थायी तौर पर सचिवालय शुरू करने की कवायद की. इससे पूरे वर्षभर लोगों को सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने का मौका मिलने की आशा थी. सूत्रों के अनुसार नागपुर समझौते की शर्तों के आधार पर 3 में से 1 सत्र नागपुर में कराने का निर्णय लिया गया था किंतु वर्ष 1986 में जनवरी और नवंबर में 2 बार अधिवेशन हुए थे. 

    विदर्भ के विधायकों का दबदबा खत्म

    उल्लेखनीय है कि 11 जिलों के 62 विधानसभा चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं के लिए स्थायी सचिवालय उपलब्ध कराया जाना था. 62 विधानसभा सदस्यों के अलावा विधान परिषद में शिक्षा विभाग के 2, स्नातक निर्वाचन से आने वाले 2 और स्थानीय निकाय के 5 मिलाकर कुल 9 विधायकों से संबंधित लोगों की न्यायिक मांगों का निपटारा हो सकता था किंतु अब विदर्भ के विधायकों का दबदबा ही खत्म होता दिखाई दे रहा है. यही कारण है कि स्थायी सचिवालय पर प्रश्न चिह्न लग गया है. राजनीतिक जानकारों के अनुसार राजनीति से परे होकर सभी दलों के विधायकों को इस दिशा में सोचना होगा. यदि स्थायी सचिवालय होता है तो प्रत्येक दल के विधायकों के अलावा जनता को भी इसका लाभ होगा. ऐसे में जनहित के इस मुद्दे पर एकजुट होना होगा.