चीन से बात तो…पाकिस्तान से क्यों नहीं

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    मुद्दा पड़ोसी देशों से संबंधों का है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) ने कहा था कि हम अपना मित्र बदल सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं! पड़ोसी को तो वहीं रहना है. बात बिलकुल ही है. चीन (China) और पाकिस्तान (Pakistan) जैसे पड़ोसी मुल्कों के साथ हमें हमेशा निभाव करना होगा. यही सब सोचकर प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की विदेश नीति बनाई थी.

    यह बात सुनने में अच्छी लगती है लेकिन सहअस्तित्व तभी शांतिपूर्ण और निरापद रह सकता है जब पड़ोसी देश भी उसका पालन करे. ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती. जहां तक बातचीत का सवाल है, विश्व युद्ध से लेकर हर विवाद अंतत: शांति वार्ता से ही सुलझे. बातचीत से ही समाधान का रास्ता निकलता है. लोकसभा में विदेश राज्यमंत्री वी. मुरलीधरन (V. Muraleedharan) ने कहा कि भारत चीन के साथ बातचीत जारी रखेगा. संबंधों में जटिलता के बावजूद दोनों पक्ष इस बात पर सहमत है कि उनके संबंधों की भावी दिशा एक दूसर क सरोकारों, संवेदनाओं और आकांक्षाओं के सम्मान पर आधारित होनी चाहिए. पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शेष मुद्दों को हल करने के लिए चीन के साथ बातचीत जारी रहेगी. अभी भी तनातनी वाले क्षेत्रों में सेनाओं को पूरी तरह हटाने तथा बहाल करने के लिए दोनों पक्षों के बीच कूटनीतिक व सैन्य दोनों स्तर पर बातचीत जारी है.

    चीन की तुलना में अधिक निकट

    यह सामान्य तर्क की बात है कि जब हम 1962 में भारत पर हमला करने वाले चीन से पूर्व लद्दाख के डोकलाम में हुई हिंसक झड़प के बाद भी बात कर सकते हैं तो पाकिस्तान से बातचीत में परहेज क्यों होना चाहिए? विभाजन के पूर्व तो पाकिस्तान भारत का ही हिस्सा था. दोनों देश में एक सी भाषा, एक जैसी संस्कृति व रिवाज के अलावा वही नस्ल है. विभाजन के समय फिल्मोद्योग लाहौर से मुंबई, चला आया. दिलीपकुमार, राजकपूर के पुश्तैनी घर पेशावर में हैं. पूर्व पीएम मनमोहन सिंह व बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवणी का जन्म वहीं हुआ जहां आज पाकिस्तान है. देखा जाए तो बिल्कुल अलग भाषा मैंडरिन और कैहोनीज वाले चीन की तुलना में पाकिस्तान भारत के ज्यादा निकट है. पंजाब का लगभग आधा हिस्सा विभाजन के समय पाकिस्तान में चला गया. कश्मीर का भी एक तिहाई हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में है. हमारे राष्ट्रगान में पंजाब व सिंध दोनों का उल्लेख है. इन सारी बातों के बावजूद भारत-पाक में 7 दशकों से भी ज्यादा समय से शत्रुता चली आ रही है.

    वार्ता पहले भी होती रहीं

    दोनों देशों में वार्ताएं पहले भी होती थीं. नेहरू लियाकत पैक्ट हुआ. इंदिरा गांधी और भुट्टो के बीच ऐतिहासिक शिमला समझौता हुआ. अटल बिहारी वाजपेयी अमन का संदेश लेकर बस से लाहौर गए थे प्रधानमंत्री मोदी ने अपने शपथ समारोह में नवाज शरीफ को बुलाया था. विदेश से लौटते समय नवाज के घर भी गए थे. यह सही है कि 1947, 1965 और 1971 को भारत-पाक युद्ध हो चुका है और पाकिस्तानी शासकों ने भारत के प्रति नफरत व कश्मीर मुद्दे पर अपनी राजनीति की रोटी सेंकी है. पाकिस्तान ने जब देखा कि आमने सामने की लड़ाई में वह अपने से 5 गुना बड़े भरत से जीत नहीं सकता तो उसने आतंकवादरूपी छद्म युद्ध का सहारा लिया. भारत उसकी हर चाल का मुंह तोड़ जवाब देता रहा.

    भारत ने विगत वर्षों से स्पष्ट रुख अपना रखा है कि जब तक पाकिस्तान सीमा पार स आतंकवाद पर रोक नहीं लग जाता, उससे कोई बातचीत नहीं होगी. यह ठीक भी है लेकिन अब यदि पाकिस्तान भारत से चर्चा केलिए आतुर है तो क्यों न विवादों के हल के लिए प्रत्यक्ष नहीं तो बैक चैनल बातचीत की जए. यह चर्चा किसी तीसरे तटस्थ देश में भी हो सकती है. व्यापारिक सांस्कृतिक व खेल जैसे मुद्दों पर  चर्चा के लिए आगे बढ़ा जा सकता है बशर्तें पाकिस्तान अपना दुश्मनी और साजिश का रवैया छोड़ दे.

    पाक की अकड़ ढीली पड़ी

    कूटनीतिक व साकरिक मार्चों पर भारत की बढ़ती ताकत और चीन की धमकी के सामने भी बराबरी से खड़े रहने का उसका प्रचंड आत्मविश्वास देखते हुए पाकिस्तान को होश आ गया. अमेरिका का वरदहस्त अब पाक पर नहीं रहा. ऐसी हालत में पाक सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा ने शांति के लिए गिड़गिड़ाते हुए कहा कि यह भारत और पाकिस्तान के लिए अतीत को भूलने और आगे बढ़ने का समय है. दोनों पड़ोसी देशों के बीच शांति से दक्षिण और मध्य एशिया में विकास की संभावनाओं को खोलने में मदद मिलेगी. अनसुलझे मुद्दों की वजह से शांति और विकास की संभावना बंधन बनकर रह जाती है. बाजवा ने यह भी कहा कि शांतिपूर्ण तरीकों के माध्यम से कश्मीर विवाद के समाधान के बिना इस क्षेत्र में शांति की कोई पहल सफल नहीं हो सकती. क्या भारत आपसी वार्ता को हरी झंडी देगा?