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    -सेजल मिश्रा 

    देश में जैसे-जैसे डिजिटलाइज़ेशन (Digitalisation) बढ़ा है, उसी अनुपात में ई-कचरा (E-Waste) भी बढ़ा है। इसकी उत्पत्ति के प्रमुख कारकों में तकनीक (Technology) तथा मनुष्य की जीवन शैली में आने वाले बदलाव शामिल हैं। कंप्यूटर तथा उससे संबंधित अन्य उपकरण तथा टी.वी., वाशिंग मशीन व फ्रिज जैसे घरेलू उपकरण और कैमरे, मोबाइल फोन तथा उनसे जुड़े अन्य उत्पाद जब चलन/उपयोग से बाहर हो जाते हैं तो इन्हें संयुक्त रूप से ई-कचरे की संज्ञा दी जाती है। आईआईटी दिल्ली (IIT Delhi) के वैज्ञानिकों ने ऐसी तकनीक विकसित की है, जिसके माध्यम से ई-कचरे का कुशल प्रबंधन किया जा सकेगा, साथ ही रिसाइकिल करके उसका फिर से इस्तेमाल करना संभव होगा। आईआईटी के वैज्ञानिकों का कहना है कि यह तकनीक स्मार्ट सिटीज (Smart Cities), स्वच्छ भारत अभियान (Swaccha  Bharat Abhiyan) और आत्मनिर्भर भारत (Aatma Nirbhar Bharat) लिहाज से पूर्णत: अनुकूल होगी। इस तकनीक को आईआईटी दिल्ली के केमिकल इंजीनयिरंग के प्रोफेसर के.के.पंत ने शोधकर्ताओं के साथ मिलकर विकसित किया है।

    वर्ष 2030 तक 74.7 मिलियन मीट्रिक टन हो सकता है ई-कचरा

    सरकार की ओर से उपलब्ध किए गए आँकड़ों के अनुसार भारत में उत्पादित ई-कचरा अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के अनुमान से काफी कम है। ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर, 2017 (Global E-Waste Monitor, 2017) के अनुसार भारत प्रतिवर्ष लगभग 2 मिलियन टन (2 Million Tonne) ई-कचरे उत्पन्न करता है तथा अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी के बाद ई-कचरा उत्पादक देशों में यह 5वें स्थान पर है। भारत के अधिकांश ई-कचरे का पुनर्नवीनीकरण (Recycled) देश के अनौपचारिक क्षेत्र द्वारा किया जाता है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय (Union Ministry of Environment) की वर्ष 2018 की एक रिपोर्ट में पाया गया कि भारत में ई-कचरे के पुनर्नवीनीकरण की स्थिति बिल्कुल अच्छी नहीं है। ग्लोबल ई-वेस्ट मॉनिटर रिपोर्ट 2020 (Global E-Waste Monitor Report, 2020) के अनुसार, 2019 में वैश्विक स्तर पर 53.7 मिलियन मीट्रिक टन कचरे का उत्पादन हुआ था। इसके साथ ही 2030 में इसके 74.7 मिलियन मीट्रिक टन होने की आशंका है।

    तीन प्रक्रियांओं पायरोलाइसिस, परेशन ऑफ मेटल फ्रेक्शन और  रिकवरी ऑफ इंडीविजुअल मेटल से होगा काम

    प्रोफेसर पंत का कहना है कि ई-वेस्ट को अर्बन माइन (Urban Mine) भी समझा जा सकता है। इससे मेटल रिकवरी (Metal Recovery) और एनर्जी प्रोडक्शन (Energy Production) का भी काम हो सकता है। इस प्रोजेक्ट में तीन प्रक्रियाएं हैं। पहला ई-वेस्ट का पायरोलाइसिस (Pyrolysis) किया जाता है, जो ताप-अपघटन-पदार्थ को गर्म करके अलग-अलग पदार्थों में विभाजित करने की प्रक्रिया है। यह ‘तापीय अपघटन’ (Thermal Decomposition) भी कहा जाता है। उदाहरण के लिए, यदि कैल्शियम कार्बोनेट को गर्म किया जाए, तो कैल्शियम कार्बोनेट कैल्शियम ऑक्साइड में टूट जाता है और इससे कार्बन डाइऑक्साइड विमुक्त होती है। दूसरा सेपरेशन ऑफ मेटल फ्रेक्शन (Separation Of Metal ) और तीसरा रिकवरी ऑफ इंडीविजुअल मेटल (Recovery Of Individual Metal)। सबसे पहले ई-कचरे से तरल और गैसीय ईंधन प्राप्त करने के लिए उसे पायरोलाइज्ड किया जाता है। इसके बाद एक तकनीक का प्रय़ोग कर 90 से 95 फीसद मेटल मिक्चर और कुछ कॉर्बनयुक्त मैटीरियल निकलते हैं। कॉर्बनयुक्त मैटीरियल को एयरोजेल (Aerogel) में बदला जाता है। इसका उपयोग छलके हुए तेल की सफाई, डाई रिमूवल औऱ सुपरकैपिसिटर में किया जाता है।

    नई तकनीक से ई-वेस्ट और प्लास्टिक वेस्ट भी हो सकेंगे रिसाइकिल

    प्रोफेसर पंत ने आगे बताया कि अगले चरण में कम तापमान की रोस्टिंग तकनीक (Roasting Technique) का प्रयोग कर इंडिविजुअल मेटल, जैसे कॉपर, निकिल, लेड, जिंक, सिल्वर और सोने को रिकवर किया जाता है। इससे 93 फीसद कॉपर, सौ फीसद निकिल, सौ फीसद जिंक, सौ फीसद लेड और 50 फीसद तक गोल्ड और सिल्वर को रिकवर किया जाता है। इसमें से किसी भी तरह के हानिकारक तत्वों से वातावरण (Environment) को कोई नुक्सान नहीं होता। इस नई तकनीक से हर तरह के ई-वेस्ट (E-Waste) और प्लास्टिक वेस्ट (Plastic Waste) को भी रिसाइकिल किया जा सकेगा।