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चुनाव आयोग ने लोकसभा उम्मीदवार के चुनाव खर्च की सीमा 70 लाख से बढ़ाकर 95 लाख रुपए कर दी है.

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    चुनाव बेहद खर्चीले हो गए हैं. इस वजह से विभिन्न पार्टियों के अधिकृत उम्मीदवार ही चुनाव लड़ सकते हैं जिनके चुनाव व्यय में पार्टी योगदान देती है. जो व्यक्ति स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ना चाहे, उसे अपनी जेब से मोटी रकम खर्च करनी पड़ती है. इतने पर भी चुनाव में उम्मीदवारों की तादाद कम नहीं होती. कुछ लोग जनाधार व लोकप्रियता नहीं रहने पर भी अपनी भनक में चुनाव लड़ते हैं जिनकी जमानत जब्त हो जाती है. कुछ उम्मीदवार दूसरे का वोट काटने के लिए खड़े हो जाते हैं. चुनाव आयोग ने लोकसभा उम्मीदवार के चुनाव खर्च की सीमा 70 लाख से बढ़ाकर 95 लाख रुपए कर दी है. छोटे राज्यों में यह सीमा 54 लाख से बढ़ाकर 75 लाख रुपए की गई है. विधानसभा के लिए बड़े राज्यों में चुनाव खर्च सीमा 28 लाख से बढ़ाकर 40 लाख तथा छोटे राज्यों में 20 लाख से बढ़ाकर 28 लाख कर दी गई है. महंगाई निर्देशों में वृद्धि, वोटर की तादाद बढ़ने तथा राजनीतिक दलों की मांग को देखते हुए चुनाव व्यय सीमा बढ़ाई गई है.

    पार्टी पर खर्च का बंधन नहीं

    चुनाव लड़नेवाले उम्मीदवार के लिए खर्च का बंधन रहता है परंतु राजनीतिक पार्टी द्वारा किए जानेवाले खर्च की कोई मर्यादा नहीं रहती. पार्टी को चुनाव के बाद 90 दिनों में और उम्मीदवार को 30 दिनों में खर्च का निवारण चुनाव आयोग को देना पड़ता है. प्रचार के समय प्रत्याशी को दैनिक खर्च का हिसाब रखना पड़ता है. उम्मीदवार के चुनाव खर्च पर नजर रखने के लिए विशेष निरीक्षक तैनात किया जाता है. आयोग ने कुर्सी, टेबल मंच आदि का भी दरपत्रक तय कर रखा है. इन सभी बातों के बावजूद चुनाव जीतने के लिए उम्मीदवार को पानी की तरह पैसा बहाना पड़ता है. हालत यह है कि मनपा के प्रभाग का चुनाव लड़ने के लिए भी करोड़ों रुपए खर्च होते हैं. इससे अंदाज लग सकता है कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव लड़ने में कितनी मोटी रकम खर्च की जाती होगी. चुनाव आयोग को बताए गए खर्च से 10 गुना खर्च उम्मीदवार को करना पड़ता है. इस तरह चुनाव आयोग द्वारा तय की गई चुनाव खर्च सीमा का सरासर उल्लंघन होता है. कोई भी उम्मीदवार चुनाव आयोग को निर्धारित सीमा से ज्यादा चुनाव व्यय घोषित नहीं करता.

    18 दलों ने 6,500 करोड़ रु. खर्च किए

    2015-2020 के आडिट डेटा में बताया गया है कि 18 राजनीतिक दलों ने 6500 करोड़ रुपए से अधिक की रकम चुनाव में खर्च की. इसमें बीजेपी ने 3,600 करोड़ और कांग्रेस ने 1,500 करोड़ रुपए खर्च किए. देश के कुल चुनावी खर्च की 77 प्रतिशत इन्हीं 2 बड़ी पार्टियों का रहा. पार्टियां अपने प्रचार में 52.3 प्रतिशत की अधिकतम रकम खर्च करती हैं. निर्दलीय व छोटी पार्टियों के प्रत्याशियों के पास साधन कम होने से उनके जीतने की संभावना बहुत कर रहती है.

    88 फीसदी सांसद करोड़पति

    चुनाव लड़ना गरीब व मध्यमवर्ग के सामान्य व्यक्ति के बूते की बात नहीं है. जो धनवान है वही चुनाव जीत सकता है. यही कारण है कि 2019 में लोकसभा के 88 प्रतिशत सांसद करोड़पति थे. ऐसे सांसद गरीबी और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर क्या बहस करेंगे जिनके बारे में उन्हें जानकारी ही नहीं है. झारखंड के पूर्व मुख्यमेत्री मधु कोडा, मध्यप्रदेश के वर्तमान गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा सहित कुछ विधायकों, सांसदों को चुनाव आयोग ने चुनाव खर्च की मर्यादा का उल्लंघन करने पर आपत्ति घोषित किया था. तय सीमा से ज्यादा चुनावी खर्च करने वाले 1200 के आसपास उम्मीदवारों पर अपात्रता की कार्रवाई की गईथी लेकिन ये सारे हारे हुए प्रत्याशी थे खर्च का निवारण पत्र प्रस्तुत न करने को लेकर एक भी क्षेत्रीय पार्टी की मान्यता भी रद्द की गईथी. चुनाव में कालेधन के इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए चुनाव खर्च की सीमा बांधी गई थी परंतु यह उद्देश्य सफल नहीं हो पाया.