ओवरनाइट ट्रेन में सफर कर जनता से कैसे जुड़ेंगे कांग्रेसी नेता

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    यदि किसी पार्टी के शीर्ष नेताओं को जनता से जुड़ना व सीधे संपर्क करना है तो उन्हें रात की बजाय दिन में चलने वाली ट्रेन में सफर करना चाहिए ताकि रास्ते में लोग उनसे मिल सकें. ओवरनाइट ट्रेन का सफर आम तौर पर इसलिए किया जाता है कि रात में नींद ले ली जाए और दूसरे दिन सुबह पहुंचा जाए. रात्रि में चलने वाली ट्रेन में नेता रहेंगे तो कोई उनकी नींद में खलल डालने क्यों आएगा? रात 10 से सुबह होने तक कोई उन्हें डिस्टर्ब करने की सोचेगा भी नहीं. राहुल गांधी दिल्ली से उदयपुर कांग्रेस चिंतन शिविर के लिए रात की ट्रेन से रवाना हुए.

    उनके साथ केसी वेणुगोपाल, भूपेश बघेल, अविनाश पांडे, जयराम रमेश, मणिकम टैगोर सहित लगभग 60 नेता थे. लगता है कि सभी ने आराम से ओवरनाइट ट्रेन से जाना पसंद किया ताकि रात की नींद हो जाए और सुबह तरोताजा अपनी मंजिल पर पहुंचें. इन नेताओं ने आपस में गपशप की होगी और फिर खाना खाकर बर्थ पर सो गए होंगे. ऐसे में स्टेशनों पर या ट्रेन में सहयात्रियों से किसी संपर्क का सवाल ही नहीं उठता.

    महात्मा गांधी क्या करते थे

    महात्मा गांधी आम तौर पर किसी मेल या एक्सप्रेस ट्रेन की बजाय पैसेंजर ट्रेन के तीसरे दर्जे के डिब्बे में यात्रा करते थे और जगह-जगह स्टेशन पर उनके दर्शन के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी. जब गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत आए थे तो उनके राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले ने उनसे कहा था- ‘पहले एक वर्ष तुम देश भर में अच्छी तरह घूमकर जनता के मन को समझ लो और फिर मुझसे मिलो.’ गांधी ने ट्रेन तथा अन्य उपलब्ध साधनों से देश के कोने-कोने की यात्रा की और ब्रिटिश शासन में हो रही जनता की दुर्दशा व कठिनाइयों को निकट से जाना-समझा.

    उनका जनसंपर्क इसी तरीके से बढ़ता चला गया. तब कांग्रेस सिर्फ पार्टी नहीं, बल्कि जन आंदोलन था. गरीब किसान-मजदूर भी बापू की झोली में एक चवन्नी (25 पैसे का सिक्का) डालकर धन्य हो जाता था और खुद को कांग्रेस का सदस्य मान लेता था. बापू के समान जवाहरलाल नेहरू भी भीड़ में जाते और लोगों से मिलते-जुलते थे. आजादी के पूर्व के वर्षों में कांग्रेस इसीलिए इतनी लोकप्रिय थी क्योंकि नेताओं और जनता के बीच दूरी नहीं थी.

    जनसंपर्क कट चुका है

    आज पार्टी के बड़े नेता जनता से सीधे संपर्क से कट चुके हैं. यही वजह है कि उन्हें सही फीडबैक नहीं मिलता. जनमानस की सोच को वे भांप नहीं पाते. एसी कक्ष में बैठकर की जानेवाली आर्मचेयर पॉलिटिक्स में सिर्फ हवा-हवाई बातें होती हैं. न तो पार्टी की कमजोरी के कारणों को टटोला जाता है और न जनता से जुड़ी समस्याओं को तरजीह दी जाती है. चिंतन शिविर में सिर्फ कुर्सी चिंतन होता है कि हाथ से कुर्सी क्यों चली गई और उसे फिर कैसे हासिल किया जा सकता है.

    चापलूसों से नुकसान

    पार्टी को मुसाहिबों और चाटुकारों ने काफी नुकसान पहुंचाया है. हर बात पर हां में हां मिलाने वाले कभी सच्चे सलाहकार साबित नहीं होते. कोई खुलकर दो टूक कहे कि पार्टी को परिवारवाद के शिकंजे से निकालकर इसमें नई जान फूंकनी होगी तो उसे बागी माना जा सकता है. कांग्रेस के सामने सुनिश्चित लक्ष्य के साथ कोई स्पष्ट रोडमैप होना चाहिए.

    BJP की मिसाल सामने है

    कांग्रेस के पास तो फिर भी 54 लोकसभा सीटें हैं, जबकि 1984 के चुनाव में बीजेपी सिर्फ 2 सीटों पर सिमट कर रह गई थी लेकिन इसके बाद लालकृष्ण आडवाणी ने रामरथ यात्रा के जरिए पार्टी को नवजीवन दिया. इसके बावजूद 2004 और 2009 में जब आडवाणी बीजेपी को सत्ता तक नहीं पहुंचा पाए तो पार्टी ने नेतृत्व परिवर्तन करते हुए मोदी को कमान सौंपी. बीजेपी अटल और आडवाणी तक ठिठक कर नहीं रह गई, उसने बेहिचक नेतृत्व परिवर्तन किया. पार्टी को हमेशा नेता से बड़ा माना. कांग्रेस की सोच गांधी परिवार से आगे क्यों नहीं बढ़ पा रही है? आम धारणा यही बनी हुई है कि परिवार फेविकोल का जोड़ है जो पार्टी को जोड़े हुए है, इसके बिना पार्टी बिखर जाएगी. इस यथास्थिति के घेरे में कैद पार्टी से जनता भविष्य में क्या उम्मीद कर सकती है?