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    न्यायाधीश को निष्पक्ष एवं निडर होना चाहिए, तभी वह बगैर किसी पक्षपात के न्यायदान कर पाएगा. व्यवस्था ऐसी हो जिसमें जज को पूर्ण संरक्षण मिले ताकि वह न्याय के उद्देश्यों को संविधान और कानून की कसौटी पर पूरा कर सके. यह हैरत की बात है कि कर्नाटक हाईकोर्ट के जज एचपी संदेश को पुलिस की ओर से धमकी मिली है. न्यायमूर्ति संदेश ने भ्रष्टाचार के एक मामले में एंटीकरप्शन ब्यूरो (एसीबी) और पुलिस के अतिरिक्त मुख्य महासंचालक (एडीजीपी) को लेकर टिप्पणी की थी, जिसकी वजह से उन्हें धमकियां मिली थीं. यह सचमुच आश्चर्य का विषय है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को भी डराने-धमकाने की कोशिश की जाती है और वह भी पुलिस की ओर से, जिसका काम दुर्जनों का दमन करना और सज्जनों की रक्षा करना है. पुलिस से आशा की जाती है कि वह न्यायपालिका को सहयोग देगी लेकिन यहां तो जज को पुलिसिया धौंस दी जा रही है.

    मामला इस प्रकार है

    बंगलुरू के सिटी डिप्टी कमिश्नर जे. मंजूनाथ के कार्यकाल में एक नायब तहसीलदार पीएस महेश को 5 लाख रुपए की रिश्वत लेते हुए रंगेहाथ पकड़ा गया था. महेश के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी. उसकी जमानत के लिए हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई. याचिका पर सुनवाई के दौरान महेश ने अपने बयान में कहा कि उसे रिश्वत लेने के लिए डिप्टी कमिश्नर मंजूनाथ ने कहा था लेकिन जस्टिस संदेश की बेंच को बताया गया कि एफआईआर में मंजूनाथ का नाम ही नहीं है. इस पर जस्टिस संदेश ने एसीबी को भ्रष्टाचार का केंद्र करार दिया और यह भी कहा कि एसीबी अभी एक दागी एडीजीपी सीमांतकुमार सिंह के नेतृत्व में काम कर रही है. एसीबी पर ऐसी टिप्पणी के बाद जज को तबादले की धमकी मिली.

    संदेश ने स्वाभिमान दिखाया

    हाईकोर्ट जज एचपी संदेश ने कहा कि मुझे बताया गया कि एसीबी के एडीजीपी शक्तिशाली व्यक्ति हैं. मैं इसके लिए तैयार हूं. मैं किसी से नहीं डरता. मैंने जज बनने के बाद कोई भी संपत्ति जमा नहीं की है. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं किसान का बेटा हूं और जमीन जोतने को तैयार हूं. मैं किसी राजनीतिक पार्टी से नहीं हूं और राजनीतिक विचारधारा का पालन नहीं करता. इस सिद्धांतवादी जज का बयान लोगों में चर्चा का विषय बना है और हर कोई उनकी निडरता व स्पष्टवादिता की प्रशंसा कर रहा है.

    क्या यह रवैया संतुलित है?

    आम तौर पर माना जाता है कि अदालत में वकील ही ज्यादा बोलते हैं और जज ध्यान से उनकी दलीलें सुनता है. जज कम बोला करते हैं लेकिन कभी-कभार किसी जज से रहा नहीं जाता और वह भड़क उठता है. भ्रष्टाचार सिर्फ पुलिस में ही नहीं, न्यायपालिका में भी है. यदि ऐसा नहीं होता तो जस्टिस संदेश ने जज रहते हुए कोई संपत्ति नहीं जमा करने की सफाई क्यों दी? यदि न्या. संदेश मामले की सुनवाई तक ही सीमित रहते और एसीबी पर टिप्पणी नहीं करते तो मामला इतना तूल नहीं पकड़ता. उच्च पदों पर अहं का टकराव भी देखा जाता है. जज ने न्यायासन पर रहते हुए खुद को श्रेष्ठ माना तो एसीबी के एडीजीपी को अपने ओहदे का अभिमान रहा होगा. यदि रवैया संतुलित बना रहे तो ऐसे टकराव को टाला जा सकता है.