यह विड़ंबना है कि बेहद मामूली गुनाह के लिए गिरफ्तार कई हजार विचाराधीन कैदी जमानत मंजूर किए जाने के बाद भी जेल में एड़ियां रगड़ने पर मजबूर हैं. इसकी वजह उनकी गरीबी है और वे मुचलके की रकम भर पाने में असमर्थ हैं. जमानतदार भी पैसा भरकर उन्हें छुड़ाने नहीं आते. ऐसा हर कैदी जिसने कोई संगीन जुर्म नहीं किया हो जमानत का हकदार है. जेल के पहले बेल का सिद्धांत है लेकिन जब बेल स्वीकृत होने पर भी रकम भरकर छुड़ाने के लिए न आए तो कैदी को जेल की सलाखों के पीछे ही रहना पड़ता है. गरीब के परिजन और रिश्तेदार भी गरीब रहते है जो जमानत की रकम का बंदोबस्त नहीं कर पाते. यही वजह है कि बेहद मामूली से जुर्म में जिसकी सजा कुछ महीने हो सकती है, कैदी को कई-कई साल जेल में कैद रहना पड़ता है. ऐसे कितने ही कैदियों के मामले की तारीख भी कोर्ट में नहीं लगती. मामलों की बढ़ती तादाद के कारण कोर्ट में सुनवाई टलती रहती है. इस अवधि में जमानत मिल जाए तो अभियुक्त बाहर रह सकता है लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण वह जुर्माना भर पाने में असमर्थ रहता है, इसलिए उसे छोड़ा नहीं जाता. बिहार की जेलों में यह समस्या सर्वाधिक बताई जाती है.
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय किशन कौल व जस्टिस एएस ओक की पीठ ने इस गंभीर समस्या पर गौर करते हुए देश में पहली बार आदेश जारी किया है जिसके तहत सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को जेलप ्रशासनों से जमानत के बाद भी जेल में बंद कैदियों की सूची 5 दिन में तैयार कर उसे नेशनल लीगल सर्विसेस अथॉरिटी को देने को कहा गया है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि ऐसे कैदियों की रिहाई के लिए प्रयास किए जाएं. इस आदेश के अंतर्गत देश भर की जेलों में कैद विचाराधीन (अंडर ट्रायल) कैदियों की संख्या का आकलन किया जाएगा जो जमानत के बावजूद जेल में जमानती शर्तों को पूरा नहीं कर पाने के कारण अभी तक बंद हैं. जेल प्रशासन से यह डेटा देने को कहा गया है जिसमें विचाराधीन कैदियों के नाम, उन्हें मिली जमानत की तारीख, उनके अपराध, जमानत की शर्ते पूरी नहीं होने का कारण और जमानत के बाद से जेल में कैद होने तक का समय शामिल होगा. इन कैदियों को जरूरत के हिसाब से मदद मुहैया कराई जाएगी.
राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण (नेशनल लीगल सर्विसेस अथॉरिटी) इस काम के लिए टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस की मदद ले सकता है जिसे कि महाराष्ट्र में ऐसे काम का अनुभव है. जो विचाराधीन कैदी बेवजह कैद में रहने को मजबूर है, उनके वृद्ध माता-पिता, पत्नी बच्चों की कैसी दुर्दशा हो रही होगी इसकी कल्पना की जा सकती है. जब उस कैदी के पास जुर्माना या मुचलका भरने के लिए पैसे नहीं हैं और कोर्ट हितैषी उसकी, श्योरिटी लेने के लिए आगे नहीं आ रहा है तो उसका परिवार न जाने कितनी दयनीय व बेसहारा स्थिति में होगा! सुप्रीम कोर्ट की यह पहल मानवीयतापूर्ण है. किसी मामूली से जुर्म के आरोप में कोई गरीब वर्षों विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में रहने को विवश हो तो यह उसके मानवाधिकारों का उल्लंघन है. जेल प्रशासन पर भी ऐसे कैदियों की व्यवस्था का भार आता है इसलिए यह समस्या यथाशीघ्र हल होनी चाहिए.