कांग्रेस छोड़ चले गए पचौरी, अब खाएंगे बीजेपी की कचौरी

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पड़ोसी ने हमसे कहा, ‘‘निशानेबाज, मध्यप्रदेश में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचौरी बीजेपी में शामिल हो गए।   इस संबंध में आपकी क्या राय है?’’ 

हमने कहा, ‘‘होली का त्यौहार समीप है।   पचौरी बीजेपी की पूरी-कचौरी खाने चल दिए तो आपको क्या आपत्ति है? उन्होंने इतने वर्षों तक कांग्रेस की पानी-पूरी खाई।   अब टेस्ट बदलना चाहते हैं।   पचौरी को लगा होगा कि प्रदेश में कांग्रेस की हालत काफी पतली हो गई है।   डूबते जहाज को चूहे भी छोड़ देते हैं इसलिए उनके दिल ने कहा- कहीं और चल जहां मिलें मीठे फल!’’ 

पड़ोसी ने कहा, ‘‘निशानेबाज, कांग्रेस ने सुरेश पचौरी को क्या नहीं दिया! जिस पार्टी ने पद, इज्जत और शोहरत दी, उसे ही छोड़ दिया।   कांग्रेस से अचानक कैसे मोहभंग हो गया?’’ 

हमने कहा, ‘‘सफल नेता वही होता है जो अवसर के अनुकूल निर्णय ले और सिद्धांतों की बेड़ी से खुद को मुक्त कर ले।   जनता को आश्चर्य होता है कि बीजेपी को सांप्रदायिक पार्टी बतानेवाले और धर्मनिरपेक्षता की डोज पिलानेवाले कांग्रेस नेता अचानक गले में बीजेपी का दुपट्टा क्यों पहनने लगे?’’ 

पड़ोसी ने कहा, ‘‘निशानेबाज, यही तो मोदी और शाह का मैजिक है। आम तौर पर नेता विभिन्न कारणों से पार्टी बदलते हैं।   कुछ जांच एजेंसियों के प्रकोप से बचने के लिए ऐसा कदम उठाते हैं।   किसी को दूसरी पार्टी में अपना राजनीतिक भविष्य और उजला होता नजर आता है।   कुछ को समझ में आता है कि कांग्रेस तिलों में अब तेल बाकी नहीं रह गया है।   लोग तीसरे दिन अस्थि विसर्जन करते हैं।   पचौरी ने राहुल गांधी की न्याय यात्रा की मध्यप्रदेश से विदाई के तीसरे दिन कांग्रेस को अंतिम प्रणाम करके बीजेपी ज्वाइन कर ली।  ’’ 

हमने कहा, ‘‘सिर्फ पचौरी ने नहीं बल्कि कांग्रेस के पूर्व विधायकों विशाल पटेल, अर्जुन पलिया, सतपाल पलिया और भोपाल जिला कांग्रेस अध्यक्ष कैलाश मिश्रा ने भी बीजेपी ज्वाइन कर ली।   ऐसा ही दौर चलता रहा तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस के बारे में कहना होगा कि खंडहर बताते हैं कि इमारत कभी बुलंद थी।  ’’ 

पड़ोसी ने कहा, ‘‘निशानेबाज, ‘‘इंदौर के पूर्व कांग्रेस विधायक संजय शुक्ला 200 करोड़ की संपत्ति के मालिक हैं।   उन्हें बीजेपी का दुपट्टा पहनाते हुए कैलाश विजयवर्गीय ने मजाक में कहा कि कभी ये मुझे बहुत गालियां दिया करते थे।  ’’ 

हमने कहा, ‘‘राजनीति में मित्रता और शत्रुता स्थायी नहीं रहती।   मतलबपरस्ती का दूसरा नाम राजनीति है।  ’’