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लोकसभा चुनाव से बूस्टर की उम्मीद
सूर्यप्रकाश मिश्र @नवभारत
मुंबई: कभी पुरोगामी विचारधारा की वाहक कही जाने वाली महाराष्ट्र की राजनीति में पिछले कुछ वर्षों में बड़े उलटफेर दिखाई दिए हैं। इनमें वर्ष 2023 तो राज्य की सियासत में काफी उलटफेर वाला रहा। इनमें सबसे ज्यादा झटके यदि किसी एक राजनीतिक परिवार के व्यक्ति को लगे हैं, तो उनमें उद्धव ठाकरे ( Udhhav Thackeray ) का नाम लिया जा सकता है। शिवसेनाप्रमुख स्व.बालासाहब ठाकरे के राजनीतिक वारिस कहे जाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने अपने ही लोगों की बगावत के चलते 2022 में न सिर्फ सत्ता खोई बल्कि वर्ष 2023 में उन्हें पार्टी के नाम व निशान से भी महरूम होना पड़ा। 

लगातार झटके
शिवसेना पार्टी से पहले विधायक और बाद में पार्टी का नाम और निशान दोनों हथियाने वाले मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे उद्धव ठाकरे के लिए बड़ी चुनौती बन कर उभरे। बीजेपी के सहयोग से लगातार लगते राजनीतिक झटकों से उद्धव ठाकरे अभी तक उबर नहीं पाए हैं। यहां तक कि मुंबई मनपा में शिवसेना के 84 पूर्व नगरसेवकों में से 50 नगरसेवकों को मुख्यमंत्री शिंदे ने अपने पाले में कर लिया। पिछले लगभग 30 वर्षों से देश की सबसे धनी मुंबई महापालिका पर ठाकरे परिवार का ही वर्चस्व रहा है। बदले राजनीतिक घटनाक्रमों के बीच समय पर मुंबई मनपा चुनाव न होने से भी उद्धव ठाकरे की मुश्किलें बढ़ीं हैं। मुंबई के अलावा ठाणे, कल्याण, नाशिक व अन्य मनपा में भी रहे सत्ताधारी नगरसेवक उद्धव का साथ छोड़ चुके हैं। 

जनता की अदालत में होगा फैसला
वैसे सत्ता, विधायक, सांसद और पार्टी का निशान गंवाने के बावजूद उद्धव ठाकरे के हौसले पस्त नहीं हुए हैं। वे वर्ष भर लगातार बीजेपी हाईकमान और राज्य में शिंदे-फडणवीस सरकार पर हमला बोलते रहे हैं। कभी मातोश्री से ही राजकाज चलाने वाले उद्धव ठाकरे ने पिछले एक वर्षों में अपनी छवि बदलने का भी पूरा प्रयास किया है। वे कई बार राज्य के दौरे पर भी निकले। उद्धव को पता है कि अब आने वाले लोकसभा विधानसभा चुनाव में राज्य की जनता ही उनका राजनीतिक भविष्य तय करने वाली है। 

क्या पलटेगी बाजी
2024 लोकसभा चुनाव में उद्धव को यदि सफलता मिलती है, तो यह उनकी अगली राजनीति के लिए बूस्टर का काम करेगी। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि  एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बन चुके हैं, वे मेहनत भी काफी कर रहे हैं, भले शिवसेना उनके हाथ लग गई है, लेकिन उद्धव की लोकप्रियता बरकरार है। उनका भी समर्थकों का एक अच्छा बेस है, जिसे अगर चुनाव में भुनाया गया तो बाजी फिर पलट सकती है। वह मौका उद्धव ठाकरे को अब जल्द मिल सकता है। आगामी अप्रैल-मई में होने वाला लोकसभा चुनाव उद्धव ठाकरे और उनके समर्थक गुट के लिए तो ये एक तरह से सियासी वजूद की लड़ाई है। शिवसेना हाथ से गई है, लेकिन उद्धव एक बड़ा चेहरा हैं, अगर वे अपने दम पर राज्य में विपक्षियों एक साथ लाने में कामयाब हो जाते हैं, तो बिना शिवसेना के भी वे विरोधियों को बड़ा सियासी संदेश दे सकते हैं। 

ठाकरे ब्रांड किसके साथ 
शिवसेना के इतिहास में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में हुए सबसे बड़ी बगावत के बाद महाराष्ट्र में ठाकरे ब्रांड को काफी झटका लगा है। सीएम शिंदे एवं उद्धव दोनों गुट शिवसेनाप्रमुख स्व. बालासाहब ठाकरे के विचारों को लेकर आगे बढ़ने का दावा करता रहा है। पिछले दिनों बाल ठाकरे की समाधी पर दोनों गुट के कार्यकर्ता भी आपस में भीड़ गए। वैसे निष्ठावान पुराने शिवसैनिकों में उद्धव ठाकरे के प्रति संवेदना का भाव नजर आता है, परंतु हिंदुत्व की विचारधारा अपनाने वाले नए शिवसैनिकों को उद्धव ठाकरे का सॉफ्ट हिंदुत्व पसंद नहीं आ रहा है। राज्य में इंडिया गठबंधन में बड़ी भुमिका निभाने वाले उद्धव ठाकरे अपनी सेकुलर छवि भी गढ़ने में लगे है। 

कई मोर्चे पर चुनौतियां
राज्य की सत्ता,संगठन से लेकर सुप्रीम कोर्ट, विधानसभा अध्यक्ष तक कई मोर्चे पर उद्धव को चुनौतियां मिली हैं। जिन मराठा छत्रप शरद पवार की मदद से उद्धव मुख्यमंत्री बने थे, आज उन्ही पवार के भतीजे अजीत पवार राज्य की सत्ता में शामिल हो गए। इस बीच कई बार उद्धव के लिए कांग्रेस की भूमिका भी सहज नहीं रही है। वीर सावरकर के मुद्दे पर उद्धव का कांग्रेस के साथ मतभेद कई बार खुलकर सामने आ रहा है। सावरकर पर मौन रहने पर बीजेपी भी सवाल उठाती रहती है। जैसे जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहा है, वैसे वैसे बीजेपी एवं सीएम शिंदे के हमले भी उद्धव के परिवार पर शुरू हो गए हैं। इसी तरह हिंदुत्व और इंडिया की धर्मनिरपेक्ष राजनीति के मोर्चे पर बने रहने की चुनौती आने वाले समय में उद्धव के समक्ष होगी।