(Photo-ANI)
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    गुजरात: ओल्ड इस गोल्ड यह हम सदियों से सुनते आ रहे है और यही सच है। हालांकि बढ़ते तकनीकियों के साथ अब पुरानी चीजें और तरीकों पर धूल जमते जा रही है। पर आज भी कई लोग ऐसे है जो पारंपरिक पद्धति के जरिये ही अपना काम करते है और मार्किट में अपनी एक नई पहचान बनाते है। जी हां गुजरात के वडोदरा (Vadodara) से एक ऐसी ही खबर सामने आयी है। जहां मिटटी से पटाखें बनाने (Making Crackers From Clay) वाली 400 साल पुरानी पद्धति को फिर से पुनर्जीवित किया है। 

    दरअसल वडोदरा में मिटटी के जरिये दिए बनाने का 400 साल पुराना तरीका आज फिरसे अपनाया जा रहा है और इसके जरिये एक छोटीसी पहल करके इस पारंपारिक पद्धति को अपनाते हुए मिटटी के दिए बनाये जा रहे है।  

    चीनी पटाखों ने किया था कब्जा 

    आपको बता दें कि वडोदरा जिले के फतेहपुर के कुम्हारवाड़ा में कुछ शिल्पकार (कुंभार) रहते हैं, जिन्हें मिट्टी का उपयोग करके पटाखे बनाने में विशेषज्ञता हासिल की है, विभिन्न प्रकार के पटाखे जिन्हें कोठी के नाम से जाना जाता है। लेकिन फिर कुछ वर्षों बाद हमारे देश में चीन के पटाखों ने भारतीय बाजारों में पानी भर दिया जिससे इन पटाखों का उत्पादन लगभग दो दशकों तक बंद रहा।

    पारंपरिक पद्धति को किया पुनर्जीवित 

    चार सदियों पुरानी इस कला को पुनर्जीवित करने में प्रमुख परिवार फाउंडेशन नाम के एक एनजीओ ने मदद की है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के ‘वोकल फॉर लोकल’ के आदर्श वाक्य ने एनजीओ को इस सदियों पुरानी कला को फिर से जीवंत करने के लिए प्रेरित किया। यह न केवल इस कला रूप को नई पीढ़ी के सामने रखेगा, बल्कि कुछ आवश्यक रोजगार भी प्रदान करेगा। इसके जरिये हमारी भारतीय खासियत भी बरकरार रहेगी और चीनी उत्पादों के बजाय भारतीय उत्पादों से बाजार सजेंगे। 

    स्थानीय कलाकारों को मिलेगा रोजगार 

    प्रमुख परिवार फाउंडेशन के अध्यक्ष निताल गांधी ने कहा, “ये पटाखे 100 प्रतिशत स्वदेशी हैं। कोठी मिट्टी से बनाई जाती है। एक कुम्हार ने उन्हें मिट्टी का उपयोग करके बनाया है। चक्री कागज और बांस से बना है। हमारा उद्देश्य अधिक से अधिक प्रदान करना है स्थानीय कलाकारों को रोजगार। ये पर्यावरण के अनुकूल हैं। उपयोग के बाद घुल जाते हैं। साथ ही, ये बच्चों के लिए सुरक्षित हैं। कोई भी इन पटाखों का उपयोग कर सकता है। हमारी थीम ‘वोकल फॉर लोकल’ है।”

    पटाखों से नहीं होगा कोई नुकसान 

    रमन प्रजापति नाम के शिल्पकार ने एनजीओ को एक बार फिर कोठी बनाने का श्रेय दिया और कहा कि वे इस हद तक सुरक्षित हैं कि कोई उन्हें अपने हाथों में रखते हुए फोड़ सकता है। यह पटाखे बनाने का 400 साल पुराना तरीका है। बड़े लोग कोठी बनाते थे। 20 साल पहले मैं रुक गया था क्योंकि यह लाभदायक नहीं था। लेकिन फिर निताल भाई आ गए और मैंने उन्हें कुछ कोठियों के नमूने दिखाए। फिर मैंने मिट्टी के 2 ट्रैक्टरों की व्यवस्था की और उन्हें बनाया। मुझे इस दिवाली में कमाई करनी है। हम 1-5 लाख कोठी बना सकते हैं।”