अपनी जगह बनाने के दीदी के इरादों से कांग्रेस में बेचैनी

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    बेहतर होता कि कांग्रेस में तोड़फोड़ के लिए ममता पांच से छह महीने इंतजार कर लेती. पांच राज्यों के चुनाव नतीजों से तस्वीर बहुत कुछ साफ होगी. पश्चिम बंगाल के चुनाव में तूफानी जीत के बाद से टीएमसी सुप्रीम और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अब राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर अपनी भूमिका स्थापित करने में जुटी हैं. ममता बेहद आक्रामक, जुझारू नेता हैं. जमीन पर संघर्ष करके उन्होंने खुद को स्थापित किया. दशकों तक सत्ता में रही वामपंथी पार्टियों को बंगाल से उखाड़ फेंका. 

    अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ मजबूत विकल्प खड़ा करने की कोशिशों के बीच ममता के हालिया फैसलों से कांग्रेस ही नहीं, समूचा विपक्ष चकित है. उनके निशाने पर वे सारे राज्य हैं, जहां कांग्रेस नेतृत्व, संगठन और संसाधनों के मोर्चे पर कमजोर पड़ रही है. असम से सांसद रहीं सुष्मिता देव को तोड़ने के बाद ममता ने गोवा में कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री का टीएमसी में शामिल किया. मिणपुर में तो पूर्व सीएम समेत कांग्रेस विधायकों का पूरा खेमा पाला बदलकर ममता की तरफ हो गया. 

    बिहार, हरियाणा और दिल्ली में कांग्रेस नेताओं को तोड़कर टीएमसी में शामिल करनेवाली ममता ने उप्र में अखिलेश सिंह यादव की सपा का खुले समर्थन की पेश्कश की है. ये मानना चाहिए कि ममता निश्चित रूप से एक योजना के साथ चल रहीं होंगी. टीएमसी उन राज्यों में अभी नहीं जा रही, जहां कांग्रेस मजबूत है या भाजपा को सीधी टक्कर दे रही है. वह गोवा, उत्तर पूर्व के राज्यों में घुसपैठ कर रही है, जहां कांग्रेस कमजोर हुई है. टीएमसी इस शून्य को भरना चाहती है. टीएमसी के इरादे कांग्रेस के लिए निश्चित रूप से चिंता की वजह हैं, जो अपने अस्तित्व, वोट बैंक को बचाने के लिए जूझ रही है. 

    दक्षिण भारत में कर्नाटक को छोड़कर किसी भी राज्य में आज कांग्रेस बड़ी ताकत नहीं बची. हिंदी पट्टी के बड़े राज्यों में भी उसका बड़ा वोट बैंक बाकी दल हजम कर चुके हैं. आठ से दस राज्य ही हैं, जहां उसकी स्थिति भाजपा को टक्कर देने लायक है. टीएमसी के फैस्लों से लग सकता है कि वह भाजपा के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को ही आगे बढ़ा रही हैं. भाजपा की नजर में आज भी कंग्रेस भविष्य का खतरा है. अगर ऐसा नहीं होता तो जिस कांग्रेस को भाजपा मरणासन्न पार्टी कहती है, उस पर खुद भाजपा और केंद्र सरकार का शीर्ष नेतृत्व लगातार हमले ना कर रहा होता. 

    भाजपा के लिए भी यह मुफीद है कि टीएमसी जैसे दूसरे क्षेत्रीय दल कांग्रेस के वोट बैंक को खाली कर दें. ममता बनर्जी का लक्ष्य अलग है, पर कांग्रेस या दूसरे दलों से तोड़कर लाए गए. ज्यादातर नेता केवल बड़े नाम हैं, उनका कोई बड़ा जनाधार राज्य में बचा नहीं. इन नेताओं से ममता को संबंधित राज्य में पहुंच बनाने का रास्ता मिल सकता है. एक वजह लोकसभा चुनाव के वक्त गठबंधन क सौदेबाजी में टीएमसी का वजन बढ़वाना भी हो सकता है. 

    खुद को पीएम के दावेदार के रूप में आगे करने का फायदा पश्चिम बंगाल में भी ममता को मिलेगा, क्योंकि इस छवि के साथ 2024 के लोकसभा चुनाव में वहां का मतदाता पहली संभावित बंगाली पीएम ममता बनर्जी की पार्टी को वोट देने की सोचेगा. अगर भावनात्मक दांव से ममता भाजपा की लोकसभा सीटों को बंगाल में 18 से 2 या तीन पर ला पटकती हैं, तो टीएमसी के लिए बहुत बड़ी जीत होगी. दिल्ली में लोकसभा चुनाव में आप को जीत नहीं मिलने की एक बड़ी वजह यही थी कि मतदाताओं को पता था कि आप जीतकर भी सत्ता में नहीं आ सकती. 

    दूसरी अहम बात, वोट बैंक की है. भाजपा के वोट बैंक से उलट कांग्रेस के वोट बैंक को पलटाना, आम आदमी पार्टी, सपा या टीएमसी के लिए आसान है, क्योंकि इनके वोट बैंक की तासीर एक जैसी है. दूसरी तरफ, त्रिपुरा जैसे स्थानों पर कांग्रेस को अपनी सांगठनिक कमजोरियों की वजह से नुकसान हुआ. वामपंथी गठबंधन को टक्कर देने में जब वह कमजोर दिखी, तो उसका वोट भाजपा की तरफ छिटका. अब टीएमसी, वामपंथी और कांग्रेस के छिटके वोट बैंक पर दांव लगाकर त्रिपुरा की सत्ता में आना चाहती है. 

    टीएमसी जिस रास्ते पर चल पड़ी है, उससे कांग्रेस के अलावा विपक्षी एकता को भी झटका लगेगा. इसका पूरा लाभ अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा उठाएगी. राष्ट्रीय राजनीति में ममता क रास्ता आसान बिल्कुल नहीं है. गुजरात के मुख्यमंत्री के बाद सीधे पीएम बने नरेंद्र मोदी के पीछे उनकी सालों से गढ़ी गई छवि, हिंदुत्व का मुद्दा और भाजपा और आरएसएस का विशाल संगठन था. बंगाल को छोड़ दिया जाए, तो टीएमसी के पास भाजपा-आरएसएस जैसा समर्पित संगठन किसी भी और राज्य में नहीं है.