कौन हैं महर्षि वाल्मीकि, जानिए अधर्म से धर्म के मार्ग को अपनाने की गाथा

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    -सीमा कुमारी

    ‘महर्षि वाल्मिकी जयंती’ इस वर्ष 20 अक्तूबर, बुधवार को है। हर साल ‘महर्षि वाल्मिकी जयंती’ अश्विन महीने की शरद पूर्णिमा के दिन मनाई जाती है। महर्षि वाल्मीकि के जन्म के बारे में कोई स्पष्ट प्रमाण तो नहीं है, लेकिन पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक, उनका जन्म महर्षि कश्यप और अदिति के नौवें पुत्र वरुण और उनकी पत्नी चर्षणी के पुत्र के रूप में माना जाता है। भृगु ऋषि इनके बड़े भाई थे।

    धार्मिक कथाओं के अनुसार, एक पक्षी के वध पर जो श्लोक महर्षि वाल्मीकि के मुख से निकला था, वह परमपिता ब्रह्मा जी की प्रेरणा से निकला था। और, यह बात स्वयं ब्रह्मा जी ने उन्हें बताई थी। उसी के बाद ही उन्होंने ‘रामायण’ (Ramayana) की रचना की थी। माना जाता है कि ‘रामायण’ वैदिक जगत का सर्वप्रथम काव्य था। ‘रामायण’ की रचना महर्षि वाल्मीकि ने संस्कृत भाषा में की थी और इसमें कुल चौबीस हजार श्लोक हैं।

    वाल्मिकी के द्वारा लिखी गई ‘रामायण’ आज भी सनातन धर्म मानने वालों के लिए पूजनीय है। महर्षि वाल्मिकी के नाम के विषय में भी कहा जाता है कि एक बार महर्षि वाल्मिकी ध्यान में मग्न थे। तब उनके पूरे शरीर पर दीमक ने घर बना लिया था। जब महर्षि की साधना पूर्ण होने के बाद उनका ध्यान टूटा तो वे दीमक को हटा कर बाहर निकले। दीमक के घर को वाल्मिकी भी कह जाता है। इसी के कारण उनका नाम महर्षि वाल्मिकी हुआ।

    जब भगवान राम ने माता सीता को त्याग दिया था। तब माता सीता महर्षि वाल्मिकी का आश्रम में ही रहती थीं। यहीं पर उन्होंने लव और कुश को जन्म दिया था। यहां पर माता सीता वनदेवी के नाम से निवास करती थी। इसी वजह से वाल्मिकी द्वारा लिखी गई ‘रामायण’ में लव कुश के जन्म के बाद का वृतांत भी मिलता है। महर्षि वाल्मिकी के द्वारा ही लव कुश को ज्ञान भी दिया गया।

    महर्षि वाल्मिकी इस तरह बने महाज्ञानी

    धार्मिक कथाओं के अनुसार, एक दिन ब्रह्ममूहूर्त में वाल्मीकि ऋषि स्नान, नित्य कर्मादि के लिए गंगा नदी को जा रहे थे। वाल्मीकि ऋषि के वस्त्र साथ में चल रहे उनके शिष्य भारद्वाज मुनि लिए हुए थे। मार्ग में उन्हें तमसा नामक नदी मिलती है। वाल्मीकि ने देखा कि इस धारा का जल शुद्ध और निर्मल था। वो भारद्वाज मुनि से बोले – इस नदी का जल इतना स्वच्छ है जैसे कि किसी निष्पाप मनुष्य का मन। आज मैं यही स्नान करूँगा।जब ऋषि धारा में प्रवेश करने के लिए उपयुक्त स्थान ढूंढ रहे रहे थे, तो उन्होंने प्रणय-क्रिया में लीन क्रौंच पक्षी के जोड़े को देखा।

    प्रसन्न पक्षी युगल को देखकर वाल्मीकि ऋषि को भी हर्ष हुआ। तभी अचानक कहीं से एक बाण आकर नर पक्षी को लग जाता है। नर पक्षी चीत्कार करते, तड़पते हुए वृक्ष से गिर जाता है। मादा पक्षी इस शोक से व्याकुल होकर विलाप करने लगती है। ऋषि वाल्मीकि यह दृश्य देखकर हतप्रभ रह जाते हैं। तभी उस स्थान पर वह बहेलिया दौड़ते हुए आता है, जिसने पक्षी पर बाण चलाया था। इस दुखद घटना से क्षुब्ध होकर वाल्मीकि ऋषि के मुख से अनायास ही बहेलिये के लिए एक श्राप निकल जाता है। वह परमपिता ब्रह्मा जी की प्रेरणा से निकला था और यह बात स्वयं ब्रह्मा जी ने उन्हें बताई थी।

    “मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती समा। यत्क्रौचमिथुनादेकमवधी काममोहित्म।।”

    उसी के बाद ही उन्होंने ‘रामायण’ की रचना की थी। कथाओं के अनुसार श्री राम के परित्याग के बाद महर्षि वाल्मीकि जी ने ही मां सीता को अपने आश्रम में आश्रय देकर उनकी रक्षा की थी और देवी सीता के दोनों पुत्रों लव और कुश को ज्ञान भी प्रदान किया था। असत्य से सत्य की मार्ग पर चलकर महाज्ञानी बनने वाले महर्षि वाल्मिकि का जीवन प्रेरणादायक है।

    जो क्रूरता से दया, सबलता दृढ़ता की ओर जाने वाला है। महृर्षि वाल्मिकि ने संस्कृत में महाकाव्य रामायण की रचना के साथ श्रीराम के संपूर्ण जीवन को चरितार्थ करने के साथ देवी सीता के आश्रयदाता बने और लव-कुछ के जन्म के गवाह और संरक्षक गुरु भी रहे। वाल्मिकि ने अपने कठोर तप और परिश्रम, ज्ञान से अपने जीवन के बुरे कर्मों को दूर किया था और आखिर में महर्षि के रूप में संसार में प्रसिद्ध हुए।