देश को चाहिए मजबूत विपक्ष

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    शक्तिशाली मोदी सरकार के सामने विपक्ष बिखरा हुआ, कमजोर और निष्प्रभावी प्रतीत होता है. देश में इससे पहले मजबूत विपक्ष की कभी इतनी ज्यादा जरूरत महसूस नहीं की गई. ऐसा विपक्ष होना चाहिए जो सरकारी नीतियों को बाधित न करे, बल्कि रचनात्मक विपक्ष की भूमिका अदा करे और संसद में सत्तापक्ष को बहस के लिए बाध्य करे तथा राष्ट्रीय व जनहित के मुद्दे उठाए.

    एक मजबूत और स्थिर विपक्ष देश की राजनीतिक स्थिरता के लिए तो जरूरी है ही, नीतियों के बेहतर क्रियान्वयन के लिए भी उसका होना आवश्यक है. विपक्ष के कमजोर होने और उसमें एकता के अभाव के कारण भाजपा अपनी नीतियों और फैसलों को जोर-शोर से अध्यादेशों के जरिये संसद में बगैर बहस के या प्रवर समितियों में विचारार्थ भेजे बिना लागू करती है, क्योंकि उसके पास भारी बहुमत है.

    कुछ न कर पाने के कारण बेबस विपक्ष नारे लगाता है, अध्यक्ष की आसंदी तक पहुंच जाता है, विधेयक फाड़ डालता है, भाषणों में बाधा पहुंचाता है, सदन की कार्यवाही स्थगित करने के लिए विवश करता है और सदन के बाहर महात्मा गांधी की प्रतिमा के सामने धरने पर बैठता है, जैसा कि कांग्रेस, तृणमूल और शिवसेना के 12 राज्यसभा सांसदों के निलंबन के फैसले के खिलाफ किया. सदन की कार्यवाही स्थगित होने का मतलब है करदाताओं के पैसे की बर्बादी, लेकिन इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता.

    नेतृत्व के संकट से जूझती कांग्रेस

    सिर्फ यही नहीं कि पिछले 10 वर्षों में कांग्रेस ने कई चुनाव हारे हैं, बल्कि कई राज्यों में जीत के बाद भी अपनी सत्ता बरकरार नहीं रख पाई. पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सिर्फ 1 सीट (रायबरेली से सोनिया गांधी) जीत पाई. जी-23 के कांग्रेसी नेताओं के पास सोनिया-राहुल-प्रियंका को चुनौती देने के लिए न तो करिश्मा है और न जनाधार, जबकि कांग्रेस नेतृत्व की ‘त्रिमूर्ति’ पूरे देश में पार्टी के फिसड्डी और निराशाजनक प्रदर्शन देख पाने में अक्षम है.

    कांग्रेस में नेतृत्व का संकट साफ झलकता है. जब ममता बनर्जी ने कहा कि यूपीए है कहां, तो कांग्रेस आग बबूला हो गई. जब प्रशांत किशोर ने कहा कि गांधी परिवार के पास नेतृत्व करने का कोई दैवीय अधिकार नहीं है, तब भी कांग्रेस नाराज हो गई. ये टिप्पणियां कठोर हो सकती हैं, पर क्या सच नहीं हैं?

    ममता व केजरीवाल में दम

    देश में कम से कम 2 नेता ऐसे हैं, जिन्होंने नरेंद्र मोदी की भाषण कला और करिश्मा, अमित शाह की संगठनात्मक क्षमता, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जमीनी काम और केंद्र सरकार की मशीनरी को दो-दो बार परास्त कर सत्ता हासिल की है.

    ये हैं- ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल. एलजी के लगातार दबाव के बावजूद केजरीवाल ने अपनी जनप्रिय योजनाओं के जरिये दिल्ली में अपना मजबूत जनाधार स्थापित किया है और ममता बनर्जी एक बड़ी जननेता हैं, जिनके असंख्य समर्थक हैं. इस साल चुनाव में उन्होंने अकेले ही मोदी और शाह का मुकाबला किया. वे दोनों ममता पर जितने हमलावर हुए, समर्थकों ने दीदी के प्रति उतनी ही एकजुटता दिखाई. 

    अगर कांग्रेस मोदी से मुकाबला करने के मामले में वाकई गंभीर है तो उसे पूरे देश में ममता और केजरीवाल से गठजोड़ करना चाहिए. कांग्रेस की अखिल भारतीय मौजूदगी और उसके सांगठनिक नेटवर्क को ममता और केजरीवाल की जुझारू छवि, अदम्य ऊर्जा, गहरी प्रतिबद्धता, गलियों-नुक्कड़ों में सक्रियता और बिना थके चुनाव अभियानों में लगे रहने की क्षमता का साथ मिले, तो यह अगले चुनाव में एक मजबूत विपक्ष का आकार ले सकता है.

    यह गठजोड़ शायद मोदी को सत्ता से हटा न पाए, लेकिन इससे संसद में एक मजबूत विपक्ष का स्वरूप बनेगा, जो सरकार पर दबाव बना सकेगा और जिससे लोकतंत्र को ताकत मिलेगी. राष्ट्रहित में और लोकतंत्र को मजबूती देने के लिए कांग्रेस को चाहिए कि इस विपक्षी मोर्चे का नेतृत्व करने के लिए वह ममता को आमंत्रित करे. लेकिन क्या कांग्रेस ऐसा करेगी?