कांग्रेस हाईकमांड के लिए गले की फांस बन गए हैं सिद्धू

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    पंजाब में इसी महीने होने जा रहे विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती सत्ता में वापसी करना है. अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतारे जाने से लेकर सिद्धू को पीसीसी का अध्यक्ष बनाने और चरनजीत सिंह चन्नी के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होने तक बहुत सारे घटनाक्रम किसी फिल्मी कहानी जैसे हैं. कुछ महीनों पहले तक पंजाब में कांग्रेस की स्थिति बहुत मजबूत मानी जा रही थी. पर हालात तेजी से बदले हैं. 

    राज्य के पहले दलित मुख्यमंत्री के रूप में चन्नी की ताजपोशी आज भले ही कांग्रेस के मास्टर स्ट्रोक के रूप में पेश की जा रही हो, लेकिन पंजाब कांग्रेस के अंदर चले घमासान को बारीकी से देखा जाए, तो वह भी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री धामी की तरह अचानक ही उभरकर आए नाम थे. सिद्धू के भारी दबाव के बीच अब कांग्रेस को तय करना है कि पंजाब के चुनावों में वह किस चेहरे के साथ मैदान में होगी. इसके लिए कई तरह की कवायद चल रही है, पर नतीजा सबको पता है. 

    इस बात की बहुत कम संभावना है कि 32 फीसदी दलित आबादी वाले राज्य में कांग्रेस दलित सीएम के चेहरे को नकारकर सिद्धू या किसी तीसरे गैरदलित चेहरे पर दांव खेलेगी. वह भी तब जब राज्य को इतिहास में पहली बार कोई दलित मुख्यमंत्री मिला हो. कांग्रेस के खाते में भले ही कई राजनीतिक गलतियां दर्ज हों, पर वह शायद अब इतनी बड़ी गलती ना करें. सिद्धू कठपुतली सीएम से लेकर कई तरह के आरोप लगाकर कांग्रेस आलाकमान को घेरने में लगे हैं, पर इससे पार्टी के फैसले पर शायद ही कोई फर्क पड़े. 

    सिद्धू पंजाब में लोकप्रिय हैं, इसमें शक नहीं पर. कांग्रेस भी इस बात को अच्छी तरह से समझती है कि सिद्धू के पास कांग्रेस के अलावा दूसरा ठौर नहीं है. जिस तरह की छवि सिद्धू की है, उनको अभी कोई दूसरी पार्टी शायद ही लेना पसंद करे. कांग्रेस की चिंता बेलगाम सिद्धू को संभालना हो सकती है. सिद्धू ने चन्नी पर सीधा वार करते हुए कहा कि मुख्यमंत्री पद का चेहरा तय करेगा कि कांग्रेस के 60 विधायक चुने जाते हैं या नहीं.

    बहुकोणीय बना चुनाव

    अकाली दल-बसपा गठबंधन, कांग्रेस, भाजपा-अमरिंदर गठबंधन और आम आदमी पार्टी के मैदान में कूद पड़ने से पंजाब के चुनाव बहुकोणीय हो गए हैं. किसानों के संगठन ने भी अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं. यही बहुकोणीय संघर्ष कांग्रेस और अकाली दल की चिंता है. इन दोनों ही दलों के पास अपना 25 से 40 फीसदी का परंपरागत वोट है. चार से पांच मजबूत प्रत्याशी होने से नतीजे बहुत करीबी होंगे. कुछ हजार वोटों से कई सीटों का फैसला होगा. किसान संगठनों के प्रत्याशी भले ही ज्यादा सीटें ना जीत पाएं, पर हार-जीत के फैसले को जरूर प्रभावित करते दिख रहे हैं.

    अमरिंदर की मुश्किलें

    अमरिंदर सिंह पंजाब की राजनीति में बड़ा चेहरा हैं. पर उम्र उनका साथ नहीं दे रही. यही वजह है कि उनके कई करीबियों ने उनके नए दल की जगह भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़ना बेहतर समझा. अमरिंदर के लिए अपने कोटे की 30 से ज्यादा सीटों पर जीतने वाले मजबूत प्रत्याशी की तलाश भी मुश्किल हो रही है. सत्ता के दिल्ली मॉडल के साथ आप कांग्रेस, अकाली दल के बाद खुद को तीसरे विकल्प के रूप में स्थापित करना चाहती है.

    मुश्किल ये है कि आप की चर्चा है, पर उसके पक्ष में भी इस बार 2017 जैसा माहौल नहीं है. मुख्यमंत्री बनने के बाद से चन्नी ने साबित किया है, वह सुलझे हुए और चतुर नेता हैं. वह दलित हैं, पर उन्होंने कभी दलित कार्ड खेलने की कोशिश नहीं की, क्योंकि इससे दूसरा वोट बैंक कांग्रेस से बिदक सकता है. मुख्यमंत्री चेहरे की दावेदारी के मुद्दे पर भी वह पीछे ही रहे. पर राज्य के दलित वोटों को कांग्रेस की तरफ मोड़ना उनके लिए भी आसान नहीं होगा.