बिलकिस बानो केस: अपराधियों पर न्यायपालिका का हंटर ही न्याय पर भरोसा

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विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाले देश और लाखों लंबित मामलों के बीच न्यायपालिकाओं (Judiciary) के उल्लेखनीय फैसले निश्चित ही न्याय पर भरोसे को स्थिरता देते हैं. दरअसल परीक्षण और तथ्यों के अभाव, न्याय में देरी जैसे हालात न्यायपालिकाओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं. आत्मविश्वास से भरे समाज और देश के विकास के लिए भरोसेमंद और त्वरित न्याय व्यवस्था बहुत ही आवश्यक है. हालांकि न्याय में देरी होने के मामलों के समाधान के तौर पर वैकल्पिक विवाद समाधान को एक प्रयास के रूप लिया जा सकता है.

भारत के गांवों में इस तरह की व्यवस्था बहुत पहले से काम भी करती रही है. इसे ही थोड़ा और व्यवस्थित किया जाए तो लंबित प्रकरणों की संख्या नियंत्रित की जा सकती है, लेकिन जब हम अपराधियों के रिहा होने या राहत मिलने जैसे दृष्टांतों पर नजर डालते हैं तब यह पीड़ित की मनोदशा और जनमानस का न्याय के प्रति भाव की विपरीत तस्वीर प्रस्तुत करता है. इन अवसरों पर किसी एक कोर्ट का तर्कसंगत फैसला न सिर्फ ऐतिहासिक साबित होता है, बल्कि समाज पर महत्वपूर्ण प्रभाव भी छोड़ता है जो न्याय पर विश्वास को दृढ़ बनाता है. आज के समय में खासकर विधायिका, कार्यपालिका और अधिकांश सरकारी संस्थानों की गुणवत्ता, अखंडता और दक्षता में लोगों का विश्वास कम हो गया है.

केवल न्यायपालिका ही एक ऐसी संस्था है, जिसकी विश्वसनीयता पर हम सामान्यतः प्रश्नचिह्न नहीं लगाते. निश्चित रूप से इसका मुख्य कारण उसकी संवैधानिक जवाबदेही है. इसी जवाबदेही को प्रतिपादित करता हुआ गुजरात दंगों के बहुचर्चित बिलकिस बानो केस में सुप्रीम कोर्ट की 2 सदस्यीय पीठ का हालिया फैसला है.

जिसमें गुजरात सरकार ने 2022 में 11 दोषियों की समय से पूर्व रिहाई का आदेश दिया था. सरकार के इस फैसले पर पीड़ित बिलकिस बानो के साथ-साथ कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सवाल खड़े किए, बिलकिस बानो ने सरकार के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की थी, लेकिन पूर्व में सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया. पीड़ित पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट में ही पुनर्विचार याचिका दायर की, जिसे उच्चतम न्यायालय की दो जजों की पीठ ने स्वीकार किया. 

सुनवाई के बाद कोर्ट ने आरोपियों द्वारा धोखाधड़ी और तथ्यों को छिपाया जाना पाकर गुजरात सरकार के आदेश को न सिर्फ गलत ठहराया, बल्कि 11 दोषियों की रिहाई रद्द करते हुए आत्मसमर्पण का आदेश दिया. यह पीड़ित बिलकिस के साथ ही समूचे समाज को न्याय की रोशनी दिखाने वाला आदेश था. इसी तरह सरकार की मंशा के विपरीत चुनाव आयुक्त की नियुक्ति मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य चुनाव आयुक्त तथा अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति एक पैनल द्वारा ही करने का आदेश दिया. साथ ही पैनल में प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष (सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता) को शामिल करने को भी कहा. 

इस बड़े फैसले ने बहुत से निर्णय ऐसे विवादास्पद रहे हैं जिनसे विरोध पैदा हुए हैं, उन्हें अधिक समावेशी और प्रगतिशील समाज की दिशा में एक बड़े कदम के रूप में देखा गया है. ये तमाम फैसले यह बताते हैं कि कानून के मंदिर में देर है, पर अंधेर नहीं! पुनः स्पष्ट किया कि कार्यपालिका, विधायिका से सदैव ऊपर न्यायपालिका है जो हमेशा सत्य के साथ खड़ी होती है.