editorial Scholarship for backward classes, but leaders studying abroad- children of officers

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    रक्षक ही भक्षक बन गए हैं और बाड़ ही खेत को खाने लगी है. गरीबों, कमजोर और पिछड़े वर्गों के होनहार छात्रों के कल्याण के लिए बनाई जानेवाली सरकारी योजनाओं का लाभ पूरी निर्लज्जता के साथ नेता और अफसर अपने बच्चों के लिए उठा रहे हैं. जिनके नाम पर स्कीम बनाई गई है, वे उसके लाभ से वंचित हैं. यह अंधेरगर्दी नहीं तो और क्या है? महाराष्ट्र सरकार ने आर्थिक रूप से वंचित अनुसूचित जाति के प्रतिभाशाली छात्रों के विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए योजना बनाई थी लेकिन इसका लाभ कमजोर वर्ग के विद्यार्थियों को नहीं मिल पा रहा है.

    इस योजना के नियमों में बदलाव किए जाने से इसका ज्यादातर फायदा नेताओं-अफसरों अथवा धनाढ्य वर्ग के बच्चे उठा रहे हैं. इसके लिए आय मर्यादा की बाधा हटा दी गई. महालेखाकार कार्यालय ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चों को अब वास्तव में इस योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा है, इसलिए इसे बंद कर देना चाहिए. 2014 में बने नियम में मनचाहा बदलाव कर शीर्ष-100 क्यूएस रैंक वाले विश्वविद्यालयों में भर्ती होने वालों के लिए योजना की आय सीमा समाप्त कर दी गई. इसके तहत 101 से 300 के बीच क्यूएस रैंक वाले विदेशी विश्वविद्यालयों में सीट हासिल करने वालों के लिए वार्षिक पारिवारिक आय सीमा 6 लाख रुपए कर दी गई है.

    आय सीमा हटाने की नीति की वजह से काफी फर्क आया है. इसके परिणामस्वरूप अनुसूचित जाति के बीच निम्न आय वर्ग के छात्रों के अनुपात में 85 प्रतिशत की कमी आई है. दूसरी ओर यह भी कहा गया है कि इस विदेश शिक्षा योजना का लाभ प्रतिभाओं को मिलना चाहिए, चाहे वह किसी भी जाति-वर्ग के हों. ऐसी राय भी व्यक्त की गई कि इस योजना में पारदर्शिता लाने की जरूरत है. समाज के जातिगत कमजोर वर्ग के स्थान पर हर वर्ग के आर्थिक दृष्टि से कमजोर बच्चों के लिए लाभ पहुंचाया जाना उचित है. जिस प्रतिभाशाली छात्र को विदेशी विश्वविद्यालय में पढ़ने की स्कॉलरशिप का लाभ मिल रहा है, उसे राज्य या देश में कम से कम 10 वर्षों तक अपनी सेवा देनी चाहिए.