बंगाल के पंचायत चुनाव में हिंसा की जो खबरें उठीं, ये कहीं अगले वर्ष होनेवाले आम चुनाव का ट्रेलर तो नहीं है? पंचायती चुनावों में जान गंवाने वालों की संख्या अब तक 35 हो चुकी है और कम से कम 6 घायलों की हालत चिंताजनक है. बंगाल में पिछले तीन दशकों से चुनाव बिना हिंसा के सम्पन्न ही नहीं होते. फिर भी अब के पहले किसी पंचायती चुनाव में इतना ज्यादा खून खराबा नहीं हुआ. क्या यह खून खराबा अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों की आशंकित हिंसा की एक बानगी तो नहीं है?
वोटिंग के दौरान भागते हुए लोग, उनके पीछे हाथ में छुरा लेकर पीछा करते खूनी हत्यारे, भागने वालों की टूटती चप्पलें और समूचे वातावरण में छाई जबरदस्त दहशत थी. ऐसी तो पिछली सदी में 80 के दशक की चुनावी तस्वीरें हुआ करती थीं, ये 2023 में फिर लौट आयी हैं और दहशत पैदा कर रही हैं. इन चुनावों की कई सारी चिंताजनक तस्वीरें ही नहीं डरा रहीं, चिंताजनक फैसले भी डरा रहे हैं. बीएसएफ के डीआईजी एसएस गुलैरिया ने कहा कि चुनाव आयोग ने उन्हें राज्य के सेंसेटिव चुनाव बूथों की जानकारी नहीं दी थी. इसलिए जिन पोलिंग स्टेशनों में खून खराबा हो रहा था, वहां सुरक्षा बल थे ही नहीं. हैरान करने वाली बात है कि राज्य प्रशासन ने सुरक्षा बलों को हाईवेज में लगा रखा था. जाहिर है इन चुनावों के बाद जो स्थिति सामने आयी है, उससे लगता है कि राज्य के प्रशासन के आंकलन में गड़बड़ रही या जानबूझकर कुछ संवेदनशील चुनाव बूथों से सुरक्षा बलों को दूर रखा गया. राज्य प्रशासन के मुताबिक उनका अनुमान था कि प्रदेश में 4,834 बूथ संवेदनशील हैं, जहां सुरक्षा बलों को तैनात किया गया था. लेकिन जो हकीकत सामने आयी, उसके मुताबिक प्रदेश में संवदेनशील चुनाव बूथों की संख्या कहीं ज्यादा थी.
स्थानीय निकाय के चुनावों ने साबित कर दिया है कि अगर चौंकन्ना न रहा जाए तो एक प्रदेश के चुनाव भी अव्यवस्था का भरपूर रायता फैला सकते हैं. मुर्शिदाबाद, कूचबिहार और मालदा. ये वे तीन जिले हैं, जहां हमेशा से खूनी राजनीतिक लड़ाइयां होती रही हैं. बावजूद इसके ग्राम पंचायत चुनाव में चौंकन्ना रहने में कोताही बरती गई. इसी का नतीजा रहा कि 8 जुलाई को हुई 16 मौतों में से अकेली 13 मौतें इन्हीं तीन जिलों में हुई हैं. सबसे ज्यादा पांच मौतें मुर्शिदाबाद में हीन और 200 से ज्यादा लोग घायल हैं. टीमएसी के 9 कार्यकर्ता अपनी जान गंवा चुके थे. दूसरे नंबर पर सीपीआईएम के तीन कार्यकर्ता थे. जलपाईगुड़ी में तो 8 पत्रकार भी इस चुनावी हिंसा के चपेट में आ गए. हालांकि इनमें से किसी की जान नहीं गई.
लापरवाही क्यों बरती गई
सवाल है आखिर बंगाल में चुनावी हिंसा के लंबे इतिहास के बावजूद इस तरह की अनदेखी या लापरवाही क्यों बरती गई? हम सब जानते हैं कि राज्य चुनाव आयोग ऐसी बॉडी नहीं है, जिसके पास हिंसक अपराधियों से निपटने का कोई सैन्य उपाय हो. इसलिए व्यवहारिक तौर पर यह राज्य प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वह न सिर्फ चुनाव पोलिंग स्टेशनों की संवेदनशीलता को समझता बल्कि सुरक्षा बलों की तैनाती को लेकर चौंकन्ना रहता.
कहने का मतलब यह है कि चाहे कान इधर से पकड़ा जाए या उधर से, राज्य में हुई इस हिंसा की सबसे बड़ी जिम्मेदारी प्रदेश सरकार की ही है और बंगाल सरकार निःसंदेह इस जिम्मेदारी को सही तरीके से निभाने में असफल रही है. अगर अलग पार्टियों के वक्तव्यों को देखेंगे तो हम किसी सही नतीजे पर नहीं पहुंचेंगे, क्योंकि हर पार्टी चीख चीखकर यह बताने और समझाने में लगी हुई है कि वह इस हिंसा के लिए जिम्मेदार नहीं है, वह तो बस इसका शिकार हुई है. इन स्थानीय निकाय के चुनावों में, चुनाव आयोग को भी एक बड़ा सबक दिया है. इस साल अभी 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और अगले साल की शुरुआत में ही देश आम चुनावों के मोड में आ जायेगा. आशंका के बावजूद इन चुनावों की हिंसा को टाला नहीं जा सका, उससे डर बढ़ गया है कि कहीं 2024 के आम चुनाव इतने हिंसक तो नहीं होंगे कि ये अब तक की हमारी लोकतंात्रिक चेतना और संवेदना में ही कालिख पोत दें?
– विजय कपूर