गर्म होती जा रही पृथ्वी, जल, जंगल, जमीन की फिक्र करना जरूरी

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यूरोपियन यूनियन की कोपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस (सीसीएस) ने इस बात की पुष्टि की है कि धरती का तापमान (Global Warming) बढ़ता जा रहा है।  2023 में पृथ्वी उस समय से 1। 48 डिग्री ज्यादा गर्म हुई जब बड़े पैमाने पर जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल शुरू हुआ था।  जनवरी 2024 से लेकर 12 महीनों में 1850 की तुलना में पृथ्वी का तापमान डेढ़ गुना बढ़ जाएगा।  तापमान बढ़ने से ग्लेशियर या हिमनद पिघलते हैं और बाढ़ आती है।  फसल चक्र पर भी विपरित असर पड़ता है।  बेमौसमी वर्षा होती है।  हाल के वर्षों में वातावरण में कार्बन डाइ आक्साइड बढ़ी है।  अमेरिका और यूरोप में कार्बन वायु का प्रमाण 32 प्रतिशत से अधिक है जबकि भारत में वह 3। 5 फीसदी से भी कम है। 

औद्योगिक क्रांति से पर्यावरण को नुकसान

पिछली सदी में जब सबसे बड़ी चुनौती पूरे देश और दुनिया को रोजगार देने से जुड़ी हुई थी, तब दुनिया की प्राथमिकता नए-नए रोजगार खड़ा करने की थी।  भारत ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया नए रोजगार के सृजन के लिए चिंतित थी।  इसी के चलते औद्योगिक क्रांति का जन्म हुआ और इस क्रांति ने दुनिया में कई कीर्तिमान भी स्थापित किए।  विकास को एक नई दिशा मिली और चारों तरफ विकास की बयार बहने लगी।  यह एक ऐसी बयार थी, जिसने नए-नए रोजगार तो खड़े किए, लेकिन इसने प्रकृति के अंधाधुंध दोहन का रास्ता भी दिखा दिया।  हम इस तरह की होड़ में लग गए कि कैसे ज्यादा से ज्यादा और बेहतर रोजगार पैदा कर सकते हैं।  इसके पीछे हमने तकनीकी और विज्ञान को झोंक दिया। 

इस आर्थिक क्रांति ने दुनिया भर में अपनी पैठ बनाई, और भारत भी उन देशों में था।  विकास की इन सारी यात्राओं ने, जो लगभग 200 साल की हो चुकी है, विभिन्न उद्योगों को जन्म दिया।  इनमें ज्यादातर उद्योग वे थे, जो विलासिता की वस्तुओं को परोसते थे और उनकी खरीदारी ने एक नए बाजार को जन्म दिया।  दुनिया भर में इसी को स्टैंडर्ड ऑफ लाइफ भी मान लिया गया, जिससे जीवन को सुविधापूर्ण तरके से चलाया जा सके। 

जीडीपी पर ज्यादा जोर

यह चिंता संयुक्त राष्ट्र की भी थी कि किस तरह से किसी देश की प्रगति को आंका जाए और कैसे दुनिया के अन्य कार्यों के लिए आर्थिक सहायता जुटाई जा सके।  जब जीडीपी का जन्म हुआ, तो यह दुनिया भर का ऐसा उपकरण बन गया, जिससे किसी देश की प्रगति को नापा जाने लगा।  अब एक तरफ जहां बढ़ती-घटती जीडीपी देश-दुनिया की धड़कनों को निर्धारित करने लगी, वहीं दूसरी तरफ जीवन के बड़े मूल्य, जिनसे सब कुछ संभव था, तिरस्कृत होने लगे। 

इस जीडीपी में हवा, मिट्टी, जंगल, पानी के तमाम हालात का कभी कोई ब्योरा सामने नहीं आता था।  दुनिया भर में आज प्रकृति और पर्यावरण के बड़े संकटों की बात हो रही है, लेकिन इसके लिए न तो कोई संजीदगी दिखती है, न ही कोई साफ रास्ता।  हर साल किसी न किसी मुद्दे पर पृथ्वी दिवस पर बहस होती है। 

आज तक पृथ्वी पर रहते हुए हमने कुछ इस तरह के निवेश पर ज्यादा चिंता की, जिसमें सरकार व उद्यमी हर तरीके से उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए, जीवन को बेहतर बनाने के लिए बड़े निवेश की चर्चा करते हैं लेकिन इस बात की चिंता कहीं नहीं दिखाई देती है कि हम किस तरीके से अपनी पृथ्वी को बेहतर बना सकते हैं।  यह सवाल अब इसलिए खड़ा हो गया है कि दुनिया में दो बड़े संकट सबको दिखाई दे रहे हैं।  एक प्राण वायु का और दूसरा पानी का।  ये दोनों ही संकट पृथ्वी के बढ़ते तापमान से जुड़े हुए हैं। आने वाले समय में अगर इन पर सही तरीके से ध्यान नहीं दिया गया, तो शायद ये हमारे जीवन के लिए सबसे बड़ा श्राप का कारण भी बनेंगे।