Rakshabandhan is meaningful only when everyone is protected

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रक्षाबंधन भारत के प्राचीन एवं अच्छे त्योहारों में से एक है. जिसकी व्याख्या और मीमांसा वर्तमान संदर्भ में आवश्यक है. इसका विराट एवं समग्र परिप्रेक्ष्य में अर्थबोध समय की मांग है. परंपरागत रूप में बहन भाई की कलाई में राखी बांधती है और भाई उसकी हर प्रकार से रक्षा के लिए संकल्पबद्ध हो जाता है. कच्चे रेशम के धागों का यह बंधन भावनात्मक रूप से अटूट होता है. आज भी जब सीमा पर चौकस रहकर देशवासियों की रक्षा करनेवाले फौजी भाइयों को महिलाएं राखी भेजती या बांधती है तो उसके पीछे वही मंगलकामना रहती है कि हमारे इन भाइयों को ईश्वर दीर्घायु दे और हर आपदा से बचाए. रक्षा कौन करे और किसकी रक्षा हो यह प्रश्न महत्वपूर्ण है. व्यापक अर्थ में इसे देखा जाए तो समाज के ऐसे हर वर्ग की रक्षा की जानी चाहिए जो पीड़ित, उपेक्षित और असुरक्षित है. दलित, आदिवासी, आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्ग रक्षा का पात्र है. स्वाधीनता के 75 वर्ष बाद भी आर्थिक व सामाजिक विषमता बढ़ती ही जा रही है. 

विद्वेष मिटाएं विश्वास बढ़ाएं

गरीबों और दलितों से दुर्व्यवहार के समाचार मन को दुखी कर देते हैं. कुछ राज्यों में दबंग सवर्ण दलितों के साथ जानरों से भी बदतर बर्ताव करते हैं. इसी  प्रकार धर्म के नाम पर अशांति बढ़ती जा रही है. हरियाणा के नूंह की घटनाएं अत्यंत दुखद हैं. ‘जियो और जीने दो’ का भाव कहीं नजर ही नहीं आता. एक शिक्षिका ने अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चे को सारी क्लास के बच्चों से पिटवाया. उसके बाल मन पर क्या गुजरी होगी! मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने उस दलित को अपने बंगले में बुलवाकर पैर धोए और पास बैठाकर खाना खिलाया. यह उस कलंक का परिमार्जन था जिसमें एक दबंग ने उस दलित के सिर पर लघुशंका की थी. ये घटनाएं बताती हैं कि हम किस तरह के समाज में जी रहे हैं जहां इंसान को इंसान नहीं समझा जाता. हिंदू-मुस्लिम के बीच विद्वेष उत्पन्न करनेवाली ताकतें नहीं जानतीं कि वे देश का कितना बड़ा अहित कर रही हैं. उन्हें कौन बताए कि चित्तौड़ की रानी कर्मावती ने दुश्मन के हमले के समय गुजरात के शासक बहादुरशाह को राखी भेजी थी कि वह अपनी इस बहन की रक्षा के लिए आए. बहादुरशाह मदद के लिए पहुंचा तब तक राजपूत महिलाएं जौहर कर चुकी थीं. आज समाज में अनाचार चरम पर है. नाबालिकों पर दुष्कर्म के मामले बढ़ रहे हैं. महिलाओं की आबरू पर संकट मंडरा रहा है. लोग अनाचार का वीडियो बनाने की बेशर्मी पर उतर आए हैं. ऐसे समय पर सजग नागरिक और खासतौर से नौजवानों को महिलाओं की रक्षा के लिए तत्पर होना चाहिए. यदि सज्जन शक्ति जागृत हो जाए तो दुर्जन टिक ही नहीं सकते. त्योहार को कर्मकांड की औपचारिकता तक सीमित न रखते हुए संकल्प से जोड़ना होगा. यदि हम गरिबों, दलितों, आदिवासियों, शोषितों-पीड़ितों की रक्षा के लिए कटिबद्ध रहेंगे तो हमारा समाज और देश भी सुरक्षित रहेगा. रक्षाबंधन समाज के हर वर्ग को एक सूत्र में बांधनेवाला हो तभी उसकी सार्थकता है.

सार्थक सोच की आवश्यकता

स्वामी विवेकानंद ने हर दीनदुखी के आंसू पोंछने की बात कही थी और दरिद्रनारायण की सेवा को सबसे बड़ा धर्म बताया था. ऐसे युवा संगठन बनने चाहिए जो मोहल्ले में एकाकी रहनेवाले बुजुर्गों की यथासंभव मदद करें. समय-समय पर अस्पताल या वृद्धाश्रम जाकर वहां फल या मिठाई देकर ऐसे वृद्धजनों के चेहरों पर मुस्कान लाएं जिन्हें उनके घरवाले निराश्रित छोड़ गए हैं. समाज के इस वर्ग की रक्षा भी तो समाज का कर्तव्य है. किसी बुजुर्ग को सुरक्षित रास्ता पार करा देना भी मानवीयता है. किसी मुसीबत या अभाव में फंसे व्यक्ति की बिना सोचे मदद कर देना भी इंसानियत है. रक्षाबंधन की उदात्त भावना व्यक्ति को समष्टि के चिंतन और राष्ट्र रक्षा की ओर प्रेरित करे. कुछ पर्वों पर वृक्षों तक को कच्चे सूत से लपेटने वाले हमारे समाज का चिंतन कितना उदारवादी रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है.