ranjan gogoi

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    सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई (Ranjan Gogoi) की टिप्पणी उस सच को उजागर करती है जिसे अधिकांश भुक्तभोगियों ने महसूस किया है. कुछ लोगों को जस्टिस गोगोई का यह कथन विस्मयजनक लग सकता है जिसमें उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि अब कोई भी कोर्ट नहीं जाना चाहता. मैं भी कोर्ट नहीं जाऊंगा क्योंकि वहां न्याय नहीं मिलता. भारतीय न्याय व्यवस्था में व्यापक बदलावों की बात करते हुए उन्होंने कहा कि आप 5 खरब डालर की अर्थव्यवस्था (Economy) चाहते हैं लेकिन आपकी न्याय व्यवस्था जर्जर हालत में है. आप जजों की नियुक्ति वैसे नहीं कर सकते जैसे सरकार में अफसरों की होती है.

    न्यायाधीश होना एक पूर्णकालिक प्रतिबद्धता है. न्यायाधीश के लिए काम के कोई घंटे तय नहीं होते. यह 24 घंटे का काम है. जहां तक न्यायपालिका के जर्जर होने की बात है, यह तथ्य अपनी जगह है कि जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार एवं सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के बीच दशकों से अधिकारों की खींचतान चल रही है. मतभेदों तथा प्रणाली की जटिलताओं ने समस्या को और बढ़ा दिया है. वर्तमान समय में सुप्रीम कोर्ट में 4 तथा उच्च न्यायालयों (Court) में 419 जजों के पद खाली पड़े हैं. दशकों से चल रहे पुराने मामलों को निपटाने के प्रयासों पर कोरोना संकट ने पानी फेर दिया. राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के अनुसार देश की निचली अदालतों में 3.8 करोड़ मामले बकाया हैं. पिछले 1 वर्ष में ही इन बकाया मामलों की तादाद में लगभग 50 लाख की वृद्धि हुई है. राज्यों के उच्च न्यायालयों में 57 लाख मामले बकाया हैं. यह केस कब और कैसे निपटेंगे, कोई नहीं जानता. जो व्यक्ति ताव-ताव में अदालत जाता है, वह बाद में हो रहे अत्यधिक विलंब तथा तारीख पर तारीख देखकर पछताता है कि कोर्ट की सीढ़ी चढ़ा ही क्यों? यद्यपि लोक अदालतों से मामले निपटाने की कोशिश की गई लेकिन इसमें विशेष सफलता मिलती नहीं दिखाई दी. अमेरिका के समान प्ली बारगेनिंग की भी पद्धति यहां नहीं है जहां अभियुक्त तत्काल अपना अपराध स्वीकार करने पर सजा में रियायत पा जाता है. इससे मामला भी जल्दी निपटता है. हमारी न्यायिक प्रणाली में अपील, वकील, दलील में मामले वर्षों लटके रहते हैं.

    हमारी न्यायिक प्रणाली कुछ इस प्रकार की है जिसे देखते हुए विदेशी निवेशक भारत की ओर आकर्षित नहीं हो पाते. उन्हें कोई भी किसी मामले में अदालत में खींच सकता है. यद्यपि विश्व बैंक की ‘ईज आफ डूइंग बिजनेस’ रिपोर्ट में भारत 63वें स्थान पर है लेकिन अधिकांश मानदंडों पर वह 163वें स्थान पर आता है. जहां तक आपराधिक मामलों का सवाल है, यौन अपराधों में बहुत कम लोगों को सजा मिल पाती है जबकि पोक्सो कानून में अत्यंत कड़ी सजा का प्रावधान है.

    विचाराधीन कैदियों का मुद्दा

    भारत की जेलों में लगभग 70 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं. इनमें से कितने ही ऐसे गरीब व साधनहीन हैं जो अपने लिए जमानत का इंतजाम नहीं कर सकते और बगैर किसी सजा के वर्षों जेल में एड़ियां रगड़ते हैं. साक्ष्य की कमी या गवाहों के जीवित न रहने से मामले कमजोर पड़ते देखे गए हैं. अदालतों पर मुकदमों का भार होने से दिवानी मुकदमे पीढ़ियों तक चलते हैं.

    न्याय प्रणाली में सुधार के लिए बनाए गए कमीशन की सिफारिशों पर पूरी तरह अमल हुए बगैर व्यवस्था की खामियां दूर नहीं की जा सकतीं. न्यायपालिका की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप क्यों होना चाहिए? जब कृषि, बैंकिंग, विनिवेश क्षेत्र में सुधार हो रहा है तो न्यायपालिका में भी इस दिशा में आगे बढ़ा जाए. न्याय में विलंब से उसका उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है.