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    -सीमा कुमारी

    इस वर्ष  पितृपक्ष 10 सितंबर, शनिवार से आरंभ होकर 25  सितंबर, रविवार तक रहेगा।और 16 दिन के श्राद्ध-पक्ष में सनातनधर्मी अपने पितरों को याद करते हैं और उनकी आत्मा की शांति के लिए सभी वैदिक अनुष्ठान करते हैं।

    पिंडदान देश के कई स्थानों पर किया जाता है, लेकिन बिहार के गया (Gaya) में पिंडदान का एक अलग ही महत्व है। ऐसा माना जाता है कि गया धाम में पिंडदान करने से 108 कुल और 7 पीढ़ियों का उद्धार होता है। गया में किए गए पिंडदान का गुणगान भगवान राम ने भी किया है। कहा जाता है कि इसी जगह पर भगवान राम और माता सीता ने राजा दशरथ का पिंडदान किया था।

    गरुढ़ पुराण के अनुसार यदि इस स्थान पर पिंडदान किया जाए, तो पितरों को स्वर्ग मिलता है। स्वयं श्रीहरि भगवान विष्णु यहां पितृदेवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे ‘पितृतीर्थ’ भी कहा जाता है। आइए जानें गया में पिंडदान की पौराणिक कथा के बारे में-

    पौराणिक कथा के अनुसार, जब ब्रह्माजी सृष्टि की रचना कर रहे थे, तब गलती से उन्होंने असुर कुल में एक असुर की रचना कर दी। इसका नाम ‘गया’ रखा गया। वह असुर कुल में जरूर था, लेकिन उसमें असुरों की कोई प्रवृत्ति नहीं थी। गया हमेशा ही देवताओं की उपासना में लगा रहता था। एक दिन गया ने सोचा कि उसका सम्मान कभी नहीं किया जाएगा। शायद इसका कारण यह है कि वो असुर कुल में पैदा हुआ है। ऐसे में क्यों न वो इतना पुण्य कमा लें कि उसे स्वर्ग मिल जाए। इसी कामना में वह विष्णु जी की उपासना में लग गया।

    विष्णु जी उसकी प्रवृत्ति से बहुत प्रसन्न हुए और उसने उसे वरदान दिया। उन्होंने गया को वरदान दिया कि जो कोई भी उसे देखेगा मात्र उससे ही व्यक्ति के कष्ट दूर हो जाएंगे। यह वरदान पाकर वो लोगों के पाप घूम-घूम कर दूर करने लगा। चाहें कोई व्यक्ति कितना भी पापी क्यों न हो अगर एक बार उस पर गयासुर की नजर पड़ जाती तो उससे ही व्यक्ति के पाप नष्ट हो जाते।

    यह देख यमराज काफी चिंतित हो गए। यमराज ने ब्रह्माजी से कहा कि गयासुर उनका सारा विधान खराब कर रहा है। क्योंकि उन्होंने सभी को उनके कर्मों के अनुसार ही फल भोगने की व्यवस्था की है। यह सुन ब्रह्माजी ने एक योजना बनाई। उन्होंने गयासुर से कहा कि तुम्हारी पीठ बहुत पवित्र है। ऐसे में मैं और समस्त देवगण तुम्हारी पीठ पर यज्ञ करेंगे। इससे गयासुर अचल नहीं हुआ।

    गयासुर की पीठ पर स्वंय विष्णु जी आ बैठे। उनका मान रखते हुए उसने अचल होने का फैसला लिया। उन्होंने विष्णुजी से वरदान मांगा कि उसे एक शिला बना दिया जाए और यहीं स्थापित कर दिया जाए। यही नहीं, गयासुर ने यह भी मांगा कि भगवान विष्णु सभी देवताओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप से इसी शिला पर विराजमान रहें। मृत्यु के बाद यही स्थान धार्मिक अनुष्ठानों के लिए तीर्थस्थल बनेगा। यह देख विष्णुजी अति प्रसन्न हुए। उन्होंने गयासुर को आशीर्वाद दिया कि जहां गया स्थापित हुआ वहां पितरों के श्राद्ध-तर्पण आदि किए जाएंगे और इससे मृत आत्माओं को पीड़ा से मुक्ति प्राप्त होगी।