दगा देते हैं विश्वस्त जो है मौकापरस्त वही राजनीति में मस्त

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    पड़ोसी ने हमसे कहा, ‘‘निशानेबाज, जो लोग राजनीति में मोटी चमड़ी रखकर आघात और विश्वासघात सहने की आदत डाल लेते हैं, उन्हें कोई तकलीफ नहीं होती. यह ऐसा क्षेत्र है जिसमें ज्यादा भरोसा करनेवाला हमेशा धोखा खा जाता है.’’

    हमने कहा, ‘‘यह कौन सी नई बात है! मुगल शहजादे भी तो मौका पाकर अपने अब्बा हुजूर का डब्बा गोल कर दिया करते थे. जिस औलाद को मासूम समझकर लाड़-प्यार करते थे, वही फौलाद बनकर उन्हें टक्कर देती थी. कंस ने अपने पिता उग्रसेन को और औरंगजेब ने अपने वालिद शाहजहां को कैद कर दिया था. इसलिए राजनीति में अपनी परछाई या साये पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए.’’

    पड़ोसी ने कहा, ‘‘निशानेबाज, आपने बड़े पुराने उदाहरण दिए. याद कीजिए, वसंतदादा पाटिल ने शरद पवार पर बहुत भरोसा किया था लेकिन पवार ने बगावत कर पाटिल की सरकार गिरा दी थी और केवल 38 साल की उम्र में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए थे. मोदी ने भी पहले गुजरात में केशुभाई पटेल को और फिर राष्ट्रीय पटल पर आडवाणी को पर्दे के पीछे भेज दिया. बिहार में नीतीश कुमार गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं. कभी उन्हें बीजेपी का कमल भाता है तो कभी लालू की लालटेन अच्छी लगने लगती है. जब इंसान रोज एक जैसा खाना नहीं खाता और एक जैसे कपड़े नहीं पहनता तो फिर एक ही पार्टी या गठबंधन में क्यों रहे? आजादी के अमृत महोत्सव में नीतीश ने बीजेपी को जहर का घूंट पिला दिया.’’

    हमने कहा, ‘‘ताली दोनों हाथ से बजती है. बीजेपी भी तो जदयू के खिलाफ गेम खेल रही थी. इसे भांपते हुए नीतीश ने अपना मास्टर स्ट्रोक चला दिया. राजनीति का मूल मंत्र है- हम भी वफादार नहीं, तुम भी तो दिलदार नहीं! जो गले मिलने के बहाने पीठ में छुरा घोंप दे, वही सफल राजनेता होता है. जिसे न आए छल-छद्म, वह पॉलिटिक्स में हो जाता है बेदम! जो है मौकापरस्त, वही रहता है मस्त!’’