भारत के कई इलाकों का मौसम इतना गर्म होता है कि लोग वर्ष के किसी भी महीने में कोट (Coat) पहनना पसंद नहीं करते लेकिन ब्रिटिश हुकूमत के जमाने से वकीलों (Lawyers) पर काला कोट पहनने की मजबूरी लाद दी गई। ठंड की बात अलग है लेकिन गर्मी के तपन भरे मौसम में कोट की बाध्यता क्यों होनी चाहिए? वकीलों को पसीने से लथपथ होकर भरी गर्मी में इस कोर्ट से उस कोर्ट में जाना पड़ता है। किसी भी कनिष्ठ न्यायालय में एसी नहीं होता और कहीं तो सीलिंग फैन भी ढंग का नहीं रहता।
ऐसे में काला कोट पहने वकीलों के बुरे हाल हो जाते है। हाईकोर्ट में तो कोट के ऊपर गाउन भी पहनना पड़ता है। इससे और भी गर्मी लगती है। कोट की जरूरत यूरोप अमेरिका में हो सकती है। यहां लोग शादी-ब्याह, रिसेप्शन पार्टी या किसी विशिष्ट समारोह में प्रेजेंटेबल दिखने के लिए कोट पहन लेते हैं लेकिन आम तौर पर ऐसे आयोजन रात में होते हैं। गर्मी की दोपहर में किसी को कोट पहनने के लिए मजबूर करना उसे सजा देने समान है। वकीलों की पहचान काले कोट से हो, यह जरूरी नहीं है।
अपने सफेद नेक बैंड से भी वकील को पहचाना जा सकता है। वकील भी काले कोट की अनिवार्यता के खिलाफ आवाज नहीं उठाते। यदि वे अपनी आवाज बुलंद करेंगे तो न्यायपालिका को भी इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करना होगा। यह अच्छा हुआ कि बढ़ती गर्मी के बीच पुणे के एक वकील ने कोट पहनने से होने वाली असुविधा कोर्ट के सामने रख दी इसके बाद पुणे के सिविल कोर्ट ने उन्हें काले कोट से राहत दी। कोर्ट के इस फैसले से वहां के वकील बेहद खुश हैं।
पुणे की कोर्ट के समान पूरे महाराष्ट्र में वकीलों को राहत दिया जाना जरूरी है। वकील सफेद पैंट-शर्ट पहनकर और गले में वकीलों वाला सफेद कॉलर बैंड लगाकर अदालत में उपस्थित हो सकते हैं। ड्रेस कोड में शिथिलता देकर वकीलों को गर्म मौसम में काले कोट की अनिवार्यता से छुटकारा दिया जाना आवश्यक है। कश्मीर, हिमाचल प्रदेश या उत्तराखंड की बात अलग है वरना समूचे देश में अप्रैल, मई, जून में भारी गर्मी पड़ती है। ऐसे में कोट से मुक्ति दी जानी चाहिए। ब्रिटिश शासन काल में जज विग भी पहना करते थे। जब उसे हटा दिया गया तो कोट पहनने की बाध्यता भी क्यों होनी चाहिए?